Wednesday, September 29, 2010

हिंदी रुकने वाली नहीं है : अरविंद कुमार

हिंदी की अपरिहार्य और अनवरोध्य प्रगति के प्रति माधुरी तथा सर्वोत्तम
रीडर्स डाइजेस्ट जैसी पत्रिकाओं के पूर्व संपादक तथा हिंदी के पहले
शब्‍दकोश समांतर कोश के रचयिता और शब्देश्वरी तथा पेंगुइन
हिंदी-इंग्लिश/इंग्लिश-हिंदी थिसॉरस द्वारा भारत में कोशकारिता को नई
दिशा देने वाले अरविंद कुमार। वह हिंदी को आधुनिक तकनीक से लैस करने के
हिमायती हैँ और आजकल इंटरनेट पर पहले सुविशाल हिंदी-इंग्लिश-हिदी ई-कोश
को अंतिम रूप देने में लगे हैं-

हिंदी के उग्रवादी समर्थक बेचैन हैं कि आज भी इंग्लिश का प्रयोग सरकार
में और व्यवसाय मेँ लगभग सर्वव्यापी है। वे चाहते हैं कि इंग्लिश का
प्रयोग बंद करके हिंदी को सरकारी कामकाज की एकमात्र भाषा तत्काल बना दिया
जाए। उनकी उतावली समझ में आती है, लेकिन यहाँ यह याद दिलाने की ज़रूरत है
कि एक समय ऐसा भी था जब दक्षिण भारत के कुछ राज्य, विशेषकर तमिलनाडु,
हिंदी की ऐसी उग्र माँगोँ के जवाब में भारत से अलग होकर अपना स्वतंत्र
देश बनाने को तैयार थे। तब ‘हिंदी वीरों’ का कहना था कि चाहे तो तमिलनाडु
अलग हो जाए, हमें हिंदी चाहिए… हर हाल, अभी, तत्काल… उस समय शीघ्र होने
वाले संसद के चुनावोँ में उन्होँने नारा लगाया कि वोट केवल उस प्रत्याशी
को देँ जो हिंदी को तत्काल लागू करने के पक्ष मेँ हो। सौभाग्य है कि भारत
के लोग इतने नासमझ न थे और न आज हैं कि एकता भंग होने की शर्त पर हिंदी
को लागू करना चाहेँ।
मैँ समझता हूँ कि पूरी राजनीतिक और भाषाई तैयारी के बिना हिंदी को सरकारी
कामकाज की प्रथम भाषा बनाना लाभप्रद नहीं होगा। हिंदी पूरी तरह आने मेँ
देर लग सकती है, पर प्रजातंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए यह देरी
बर्दाश्त करने लायक़ है। तब तक हमें चाहिए कि सरकारी कामकाज में हिंदी
प्रचलन बढ़ाते रहें और साथ-साथ अपने आपको और हिंदी को आधुनिक तकनीक से
लैस करते रहेँ।
इंग्लिश के विरोध की नीति हमेँ अपने ही लोगोँ से भी दूर कर सकती है। आम
आदमी इंग्लिश सीखने पर आमादा है तो एक कारण यह है कि आज आर्थिक और
सामाजिक प्रगति के लिए इंग्लिश का ज्ञान आवश्यक है। दूसरा यह कि संसार का
सारा ज्ञान समेटने के लिए देश को इंग्लिश में समर्थ बने रहना होगा, वरना
हम कूपमंडूक रह जाएँगे। यही कारण था कि 19वीं सदी मेँ जब मैकाले की नीति
के आघार पर इंग्लिश शिक्षा का अभियान चला था, तब राजा राम मोहन राय जैसे
देशभक्त और समाज सुधारक ने उस का डट कर समर्थन किया था। वह देश को
दक़ियानूसी मानसिकता से उबारना चाहते थे। राममोहन राय ने कहा था, ‘एक दिन
इंग्लिश पूरी तरह भारतीय बन जाएगी और हमारे बौद्धिक सामाजिक विकास का
साधन।’ स्वामी विवेकानंद ने भी अमरीका में भारतीय संस्कृति का बिगुल
इंग्लिश के माध्यम से ही फूँका था।
इसके माने यह नहीँ हैँ कि आज हम लोग हिंदी का महत्त्व नहीँ जानते या
हिंदी की प्रगति और विकास रुक गया है या रुक जाएगा। मैं समझता हूँ कि
हिंदी के विकास का राकेट नई तेज़ी से उठता रहेगा। हिंदी अब रुकने वाली
नहीं है, हिंदी रुकेगी नहीं। कारण है हिंदी बोलने समझने वालोँ की भारी
तादाद और उनके भीतर की उत्कट आग।

भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों का तथ्याधारित अनुमान हिंदी
प्रेमियों के लिए उत्साहप्रद है कि आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय
महत्त्व की जो चंद भाषाएँ होंगी उनमें हिंदी अग्रणी होगी।
संसार में 60 करोड़ से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी,
मारीशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिंदी बोलती है।
अमरीकी, यूरोपीय महाद्वीप और ऑस्ट्रेलिया आदि देशोँ में गए हमारे तथाकथित
एनआरआई कमाएँ चाहे इंग्लिश के बल पर, लेकिन उनका भारतीय संस्कृति और
हिंदी के प्रति प्रेम बढ़ा ही है। कई बार तो लगता है कि वे हिंदी के सबसे
कट्टर समर्थक हैँ।
अकेले भारत को ही लें तो हिंदी की हालत निराशजनक नहीं, बल्कि अच्छी है।
आम आदमी के समर्थन के बल पर ही पूरे भारत में 10 शीर्ष दैनिकों में हिंदी
के पाँच हैँ (दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला,
राजस्थान पत्रिका),  तो इंग्लिश का कुल एक (टाइम्स ऑफ़ इंडिया) और मलयालम
के दो (मलयालम मनोरमा और मातृभूमि), मराठी का एक (लोकमत), तमिल का एक
(दैनिक थंती)। इसी प्रकार सबसे ज़्यादा बिकने वाली पत्रिकाओँ में हिंदी
की पाँच, तमिल की तीन, मलयालम की एक है, जबकि इंग्लिश की कुल एक पत्रिका
है। हिंदी के टीवी मनोरंजन चैनल न केवल भारत मेँ बल्कि बांग्लादेश,
पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में भी लोकप्रिय हैं और हिंदी के साथ-साथ
हमारे सामाजिक चिंतन का प्रसार कर रहे हैँ।
जहाँ तक हिंदी समाचार चैनलोँ का सवाल है इंग्लिश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित
न्यूज़ वीकली इकॉनॉमिस्ट ने 14 अगस्त 2010 अंक मेँ पृष्ठ 12 पर
‘इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग’ पर लिखते हुए कहा है कि अमरीका और ब्रिटेन के
विदेशी भाषाओँ में समाचार प्रसारित करने वाले संस्थानोँ को अपना धन सोच
समझ कर बर्बाद करना चाहिए। उदाहरण के लिए भारत की अपनी भाषाओँ के न्यूज़
चैनलोँ से प्रतियोगिता करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है।
हमारी ताक़त है हमारी तादाद…
यह परिणाम है हमारी जनशक्ति का। यही हिंदी का बल है। बहुत साल नहीं हुए
जब हम अपनी विशाल आबादी को अभिशाप मानते थे। आज यह हमारी कर्मशक्ति मानी
जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने सही कहा है: ‘अधिक आबादी
अपने आपमें कोई समस्या नहीं है, समस्या है उसकी ज़रूरियात को पूरा न कर
पाना। अधिक आबादी का मतलब है अधिक सामान की, उत्पाद की माँग। अगर लोगों
के पास क्रय क्षमता है तो हर चीज़ की माँग बढ़ती है।’ आज हमारे समृद्ध
मध्य वर्ग की संख्या अमरीका की कुल आबादी जितनी है। पिछले दिनोँ के
विश्वव्यापी आर्थिक संकट को भारत हँसते खेलते झेल गया तो उसका एक से बड़ा
कारण यही था कि हमारे उद्योगोँ के उत्पाद मात्र निर्यात पर आधारित नहीँ
हैँ। हमारी अपनी खपत उन्हें ताक़त देती है और बढ़ाती है।
इसे हिंदीभाषियोँ की और विकसित देशोँ की जनसंख्या के अनुपातोँ के साथ साथ
सामाजिक रुझानोँ को देखते हुए समझना होगा। दुनिया की कुल आबादी आज लगभग
चार अरब है। इसमेँ से हिंदुस्तान और चीन के पास 60 प्रतिशत लोग हैँ। कुल
यूरोप की आबादी है 73-74 करोड़, उत्तर अमरीका की आबादी है 50 करोड़ के
आसपास। सन् 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब से ऊपर हो जाने की संभावना है।
इसमेँ से यूरोप और अमरीका जैसे विकसित देशों की आबादी बूढ़ी होती जा रही
है। (आबादी बूढ़े होने का मतलब है किसी देश की कुल जनसंख्या मेँ बूढे
लोगोँ का अनुपात अधिक हो जाना।) चुनावी नारे के तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति
ओबामा कुछ भी कहें, बुढाती आबादी के कारण उन्हेँ अपने यहाँ या अपने लिए
काम करने वालोँ को विवश होकर, मजबूरन या तो बाहर वालोँ को आयात करना होगा
या अपना काम विदेशों में करवाना होगा।
इस संदर्भ मेँ संसार की सबसे बड़ी सॉफ़्टवेयर कंपनी इनफ़ोसिस के एक
संस्थापक नीलकनी की राय विचारणीय है। तथ्यों के आधार पर उनका कहना है कि
‘किसी देश में युवाओँ की संख्या जितनी ज़्यादा होती है, उस देश में उतने
ही अधिक काम करने वाले होते हैँ और उतने ही अधिक नए विचार पनपते हैं।
तथ्य यह है कि किसी ज़माने का बूढ़ा भारत आज संसार में सबसे अधिक युवा
जनसंख्या वाला देश बन गया है। इसका फ़ायदा हमें 2050 तक मिलता रहेगा।
स्वयं भारत के भीतर जनसंख्या आकलन के आधार पर 2025 मेँ हिंदी पट्टी की
उम्र औसतन 26 वर्ष होगी और दक्षिण की 34 साल।’
अब आप भाषा के संदर्भ में इसका मतलब लगाइए। इन जवानों में से अधिकांश
हिंदी पट्टी के छोटे शहरोँ और गाँवोँ में होंगे। उनकी मानसिकता मुंबई,
दिल्ली, गुड़गाँव के लोगोँ से कुछ भिन्न होगी। उनके पास अपनी स्थानीय
जीवन शैली और बोली होगी।
नई पहलों के चलते हमारे तीव्र विकास के जो रास्ते खुल रहे हैँ (जैसे सबके
लिए शिक्षा का अभियान), उनका परिणाम होगा असली भारत को, हमारे गाँवोँ को,
सशक्त करके देश को आगे बढ़ाना। आगे बढ़ने के लिए हिंदी वालोँ के लिए सबसे
बड़ी ज़रूरत है अपने को नई तकनीकी दुनिया के साँचे मेँ ढालना, सूचना
प्रौद्योगिकी में समर्थ बनना।
यही है हमारी नई दिशा। कंप्यूटर और इंटरनेट ने पिछ्ले वर्षों मेँ विश्व
मेँ सूचना क्रांति ला दी है। आज कोई भी भाषा कंप्यूटर तथा अन्य
इलैक्ट्रोनिक उपकरणों से दूर रह कर पनप नहीं सकती। नई तकनीक में महारत
किसी भी काल में देशोँ को सर्वोच्च शक्ति प्रदान करती है। इसमेँ हम पीछे
हैँ भी नहीँ… भारत और हिंदी वाले इस क्षेत्र मेँ अपना सिक्का जमा चुके
हैँ।
इस समय हिंदी में वैबसाइटेँ, चिट्ठे, ईमेल, चैट, खोज, ऐसऐमऐस तथा अन्य
हिंदी सामग्री उपलब्ध हैं। नित नए कंप्यूटिंग उपकरण आते जा रहे हैं। इनके
बारे में जानकारी दे कर लोगों मेँ  जागरूकता पैदा करने की ज़रूरत है ताकि
अधिकाधिक लोग कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग करते हुए अपना, देश का, हिंदी
का और समाज का विकास करें।
हमेँ यह सोच कर नहीँ चलना चाहिए कि गाँव का आदमी नई तकनीक अपनाना नहीं
चाहता। ताज़ा आँकड़ोँ से यह बात सिद्ध हो जाती है। गाँवोँ मेँ रोज़गार के
नए से नए अवसर खुल रहे हैँ। शहर अपना माल गाँवोँ में बेचने को उतावला है।
गाँव अब ई-विलेज हो चला है। तेरह प्रतिशत लोग इंटरनेट का उपयोग खेती की
नई जानकारी जानने के लिए करते हैँ। यह तथ्य है कि ‘गाँवोँ में इंटरनेट का
इस्तेमाल करने वालोँ का आंकड़ा 54 लाख पर पहुँच जाएगा।
इसी प्रकार मोबाइल फ़ोन दूरदराज़ इलाक़ोँ के लिए वरदान हो कर आया है।
उसने कामगारोँ, कारीगरोँ को दलालोँ से मुक्त कर दिया है। यह उनका चलता
फिरता दफ़्तर बन गया है और शिक्षा का माध्यम। अकेले जुलाई 2010 में 1
करोड़ सत्तर लाख नए मोबाइल ग्राहक बने और देश में मोबाइलोँ की कुल संख्या
चौबीस करोड़ हो गई। अब ऐसे फ़ोनोँ का इस्तेमाल कृषि कॉल सैंटरों से
नि:शुल्‍क  जानकारी पाने के लिए, उपज के नवीनतम भाव जानने के लिए किया
जाता है। यह जानकारी पाने वाले लोगोँ में हिंदी भाषी प्रमुख हैँ। उनकी
सहायता के लिए अब मोबाइलों पर इंग्लिश के कुंजी पटल की ही तरह हिंदी का
कुंजी पटल भी उपलब्ध हो गया है।
हिंदी वालोँ और गाँवोँ की बढ़ती क्रय शक्ति का ही फल है जो टीवी संचालक
कंपनियाँ इंग्लिश कार्यक्रमोँ पर अपनी नैया खेना चाहती थीँ, वे पूरी तरह
भारतीय भाषाओँ को समर्पित हैँ। आप देखेंगे कि टीवी पर हिंदी के मनोरंजन
कार्यक्रमोँ के पात्र अब ग्रामीण या क़स्बाती होते जा रहे हैँ।
सरकारी कामकाज की बात करेँ तो पुणे में प्रख्यात सरकारी संस्थान सी-डैक
कंप्यूटर पर हिंदी के उपयोग के लिए तरह तरह के उपकरण और प्रोग्राम विकसित
करने मेँ रत है। अनेक सरकारी विभागोँ की निजी तकनीकी शब्दावली को समोकर
उन मंत्रालयोँ के अधिकारियोँ की सहायता के लिए मशीनी अनुवाद के उपकरण
तैयार हो चुके हैँ। अभी हाल सी-डैक ने ‘श्रुतलेखन’ नाम की नई विधि विकसित
की है जिसके सहारे बोली गई हिंदी को लिपि में परिवर्तित करना संभव हो गया
है। जो सरकारी अधिकारी देवनागरी लिखने या टाइप करने में अक्षम हैं, अब वे
इसकी सहायता से अपनी टिप्पणियाँ या आदेश हिंदी में लिख सकेंगे। यही नहीं
इसकी सहायता से हिंदी में लिखित कंप्यूटर सामग्री तथा एसएमएस आदि को सुना
भी जा सकेगा।
निस्संदेह एक संपूर्ण क्रांति हो रही है।





लेखक मंच से साभार

Monday, September 27, 2010

हमें आज हिन्दी के शुद्धतावादी दीवाने नहीं, हिन्दी के संवेदनशील जानकार चाहिए

हर कोई हिंदी को लेकर चिंतित है। हिंदी क्षेत्र में कई विश्वविद्यालय और
संस्‍थाएं हैं। इन सबके बाद भी हिंदी का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है।
इन कारणों और समाधान पर चर्चित संस्‍मरणकार कांतिकुमार जैन का आलेख-
जब मैं पिछले दिनों की प्रसिद्ध फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई देखकर लौट रहा
था तो मेरे 20 वर्ष के नाती ने अचानक मुझसे पूछा- नाना जी, मैंने कक्षा
में गांधीवाद के बारे में तो पढ़ा था, पर यह गांधीगिरी, लगता है, कोई नई
बात है। मुझे कहना पड़ा कि गांधीगिरी बिल्कुल नई बात है और देश में बढ़ती
हुई मर्यादाहीनता, धृष्ठता, सैद्धांतिक घपलेबाजी और वास्तविक प्रतिरोध न
कर प्रतिरोध का स्वांग करने वालों को संवेदित करने जैसी चीज़ है। जिन
शब्दों में गिरी लग जाता है, वे कुछ हीनता व्यंजक अर्थ देने लगते हैं।
जैसे- बाबूगिरी, चमचागिरी, गुंडागिरी। मुझे भारतेंदु हरिश्‍़चंद के उस
कथन की भी याद आई, जिसमें आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व उन्होंने घोषित किया
था कि हिन्दी नई चाल में ढली। अंग्रेज़ भारत में धर्म, ध्वजा और धुरी के
साथ आये थे। इन तीनों का प्रभाव हिन्दी के स्वरूप पर भी पड़ा था। धर्म के
प्रचार के लिए उन्होंने बाइबिल का अनुवाद किया और उसे मुद्रण यंत्रों से
छपवाकर जनता के बीच वितरित किया, ध्वजा के लिए उन्होंने प्रशासन तंत्र
तैयार किया और धुरी अर्थात् तराजू के लिए भारत में अंग्रेज़ी माल का नया
बाजार विकसित किया। इन तीनों के साथ हिन्दी क्षेत्र में ढेरों अंग्रेज़ी
शब्द आये जो आज तक प्रचलित हैं।
1947 में स्वतंत्रता के साथ ही हिन्दी पुन: नई चाल में ढली- लोकतंत्र,
संविधान, विकास कार्य, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, तकनीकी जैसे कारणों से
हिन्दी व्यापक हुई, उसका शब्दकोश समृद्ध हुआ। नये-नये स्रोतों से आने
वाले शब्द हिन्दी भाषी जनता की जुबान पर चढ़ गये। इन शब्दों में विदेशी
शब्द थे, बोलियों के शब्द थे, गढ़े हुए शब्द थे। जनता अपनी बात कहने के
लिए जिन शब्दों का प्रयोग करती है, उनकी कुंडली नहीं पूछती। बस काम चलना
चाहिए। वह तो भाषा के पंडित हैं, जो शब्दों का कुलगोत्र आदि जानना चाहते
हैं। जनता भाषा की संप्रेषणीयता को महत्वपूर्ण मानती है, जबकि पंडित लोग
भाषा की शुद्धता को महत्व देते हैं। हिन्दी के स्वाभिमान का हल्ला मचाने
वालों को आड़े हाथों लेते हुए निराला जी ने एक बड़े पते की बात कही थी-
हम हिन्दी के जितने दीवाने हैं, उतने जानकार नहीं। हिन्दी के शुद्धतावादी
पंडितों ने कुकुरमुत्ता नामक कविता मे प्रयुक्त नवाब, गुलाब, हरामी,
खानदानी जैसे शब्दों पर एतराज जताया था। कहा था, इन शब्दों से हमारी
हिन्दी भ्रष्ट होती है। इन शुद्धतावादी विचारकों का कहना है कि हिन्दी के
साहित्यकारों को विदेशी शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अब सामंत,
पाटल, वर्गशंकर, कुलीन कहने से हिन्दी के स्वाभिमान की रक्षा भले ही हो
जाये, किन्तु व्यंग्य की धार मौंथरी होती है और संप्रेषणीयता भी बाधित
होती है। हिन्दी के ये शुद्धतावादी पोषक शहीद भगतसिंह को बलिदानी भगतसिंह
कहना चाहते हैं। उनका बस चले तो वे भगतसिंह को भक्तसिंह बना दें। वे
फीसदी को गलत मानते हैं, उन्हें प्रतिशत ही मान्य है। वे राशन कार्ड,
कचहरी, कार, ड्राइवर, फिल्म, मेटिनी, कंप्यूटर, बैंक, टिकट जैसे शब्दों
के भी विरोधी हैं। वही हिन्दी का स्वाभिमान। यह झूठा स्वाभिमान हिन्दी के
विकास में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसे लोग हिन्दी को आगे नहीं बढ़ऩे देना
चाहते। वे वस्तुत: जीवन की प्रगति के ही विरोधी हैं।
एक बार पंडित शान्तिप्रिय द्विवेदी जबलपुर आये थे। पंडित भवानी प्रसाद
तिवारी उन दिनों वहां के मेयर थे, स्वयं कवि, ‘गीतांजलि के अनुगायक।
उन्होंने शान्तिप्रिय जी के सम्मान में एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया।
अपनी कविताएं भी सुनाईं। उनकी एक काव्य पंक्ति है- ”कैसी मुश्किल कर दी,
तुमने कितनी रूप माधुरी प्राणों में भर दी।‘’ शान्तिप्रिय जी का हिन्दी
प्रेम जागा, उन्होंने शिकायत की- बाकी सब तो ठीक है, यह मुश्किल शब्द
विदेशी है। इसे यहां नहीं होना चाहिए। भवानी प्रसाद जी तो अतिथिवत्सल और
शालीन थे, वे कुछ नहीं बोले, पर जीवन लाल वर्मा ‘विद्रोही’ जो स्वयं बहुत
अच्छे कवि और व्यंग्यकार थे बिफ़र गये। बोले- ‘मुश्किल’ से आसान शब्द आप
हिन्दी में बता दें तो मैं अपना नाम बदल दूं।‘ पंडित शान्तिप्रिय
द्विवेदी जैसे विद्वान जीवन की प्रगति से ज्यादा भाषा की शुद्धता के
हिमायती हैं।
जीवन जब आगे बढ़ता है तो वह अपनी आवश्यकता के अनुरूप  नये शब्द दूसरी
भाषाओं से उधार लेता है,  नये शब्द गढ़ता है,  लोक की शब्द संपदा को
खंगालता है और अपने को संप्रेषणीय बनाता है। मेरे एक मित्र हैं, मोबाइल
रखते हैं पर मोबाइल शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं है। मोबाइल को वे
चलित वार्ता कहते हैं। जब वे आपसे आपकी चलित वार्ता का क्रमांक पूछते हैं
तो आप भौंचक्के रह जाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे शुद्धतावादी हर
युग में हुए हैं और हास्यास्पद माने जाते रहे हैं। मध्यकाल के उस
फारसीदां का किस्सा आज भी लोगों द्वारा दुहराया जाता है, जब वे अपने
नौकरों से आब-आब की मांग करते रहे थे। पानी उनके सिरहाने ही रखा था। सो
जब कोई दीवाना मोबाइल को अछूत समझता है या पानी से परहेज करता है तो न वह
भाषा की मित्र है,  न ही अपने जीवन का। ऐसे विद्वानों को मेरे मित्र अनिल
वाजपेयी ‘अनसुधरे बल’ कहते हैं। हिन्दी तो बराबर स्वयं को सुधारती चलती
है, पर ये विद्वान् लकीर पीटने में ही मगन रहते हैं।
हिन्दी के एक विख्यात समीक्षक को दबिश जैसे शब्दों से परहेज है। वे समझते
हैं कि दबिश अंग्रेज़़ी  के फुलिश या रबिश का कोई भाईबंद है। यदि
उन्होंने हिन्दी के ही दबना,  दबाना,  दाब,  दबैल जैसे शब्दों को याद कर
लिया होता तो वे दबिश के प्रयोग पर आपत्ति नहीं करते। कचहरी, पुलिस,
कानून व्यवस्था, थाना आदि से संपर्क में आने वाले दबिश से अपरिचित नहीं
है। वस्तुत: हिन्दी के दीवाने जीवन से अपने शब्दों का चयन नहीं करते,
हिन्दी के शब्द कोशों से करते हैं। हिन्दी के शब्द कोशों के सहारे हम आज
के लोकतांत्रिक भारत के जीवन-राजनीतिक कर्थताओं,  सामाजिक विसंगतियों,
आर्थिक उलझनों और सांस्कृतिक प्रदूषण को पूरी तरह और सही-सही समझ ही नहीं
सकते। हिन्दी के शब्दकोशों में न तो सुपारी जैसा शब्द है, न अगवा, हफ्ता,
फिरौती, बिंदास, ढिसुंम, घोटाला, कालगर्ल, ब्रेक जैसे शब्द। आप हर दिन
समाचार पत्रों, पुस्तकों, जन संप्रेषण माध्यमों, बोलचाल में ये शब्द
सुनते हैं और समझते हैं, पर इन्हें अभी तक हमारे कोशकारों ने पांक्तेय
मानकर शब्दकोशों में स्थान नहीं दिया। हमारे शब्दकोश जीवन से कम से कम
पचास साल पीछे हैं।
हिन्दी में समस्या नये विदेशी शब्दों को स्वीकृत करने की तो है ही, उन
शब्दों को भी अंगीकार करने की है जो हिन्दी की बोलियों में प्रचलित हैं।
हिन्दी के साहित्यकार विभिन्न बोली क्षेत्रों से आते हैं। वे जब हिन्दी
में अपने क्षेत्रों के अनुभवों और परिवेश की कथा लिखेंगे तो वहाँ के
शब्दों के बिना उनका काम नहीं चलेगा। हिन्दी सदैव से एक उदार और ग्रहणशील
भाषा रही है। जब रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी कहा तो वे
हिन्दी की इसी व्यापक ग्रहणशीलता को रेखांकित कर रहे थे। साधु किसी एक
स्थान पर जमकर नहीं रहता, घूमता-फिरना, नये-नये क्षेत्रों में जाना उसकी
सहजवृत्ति है। इसी कारण हमारे मध्यकालीन संत कवियों में नाना बोली
क्षेत्रों के शब्द मिल जाएंगे। हिन्दी कविता का अधिकांश तो हिन्दी की
बोलियों में ही है। तुलसी, जायसी जैसे कवियों ने अपनी बोली के शब्दों से
अपने काव्य को समृद्ध किया है। जायसी जब सैनिक के लिए पाजी, तुलसी जब
सुपात्र के लिए लायक,  कबीर जब समीप के लिए नाल का प्रयोग करते हैं तो वे
हिन्दी की विशाल रिक्थ सम्‍पदा का दोहन करते हैं। नये युग में भी गुलेरी
ने उसने कहा था में ‘कुंड़माई’ जैसे शब्द का प्रयोग कर उसे हिन्दी पाठकों
का परिचित बना दिया। कृष्ण सोबती डार से बिछुड़ी लिखकर पंजाबी ‘डार’ को
जो समूह वाली है, हिन्दी का शब्द बनाने में संकोच नहीं करतीं। मैला आंचल,
जिन्दगीनामा, कसप, डूब, चाक जैसे उपन्यासों की रोचकता केवल कथा को लेकर
ही नहीं, उसकी भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता को लेकर भी है।
कुछ दिनों पहले हिन्दी के एक समीक्षक ने मैला आंचल की हिन्दी को अपभ्रष्ट
कहकर उसका परिनिष्ठित हिन्दी में अनुवाद करने का सुझाव दिया था। इधर
हिन्दी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकृत किये जाने की
मांग बढ़ रही है। यदि अवधी को हिन्दी से पृथक भाषा मान लिया जायेगा, तब
क्या रामचरित मानस का हिन्दी अनुवाद करना पड़ेगा, हजारी प्रसाद द्विवेदी
के उपन्यासों को भोजपुरी में रूपान्तरित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी?
नामवर सिंह तब हिन्दी के नहीं, भोजपुरी के साहित्यकार माने जाएंगे। इधर
मेरे पास बुंदेली प्रेमियों के बहुत से पत्र आ रहे हैं जिनमें आग्रह किया
जा रहा है कि मैं अपनी मातृभाषा के रूप में हिन्दी को नहीं,  बुंदेली को
जनगणना पत्रक में दर्ज करवाऊँ। यह एक संकीर्ण विचार है। इससे हिन्दी बिखर
जाएगी और हिन्दी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। एक ओर तो विभिन्न
दूरदर्शन चैनलों में दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में बींद और बींदड़ी
जैसे ठेठ क्षेत्रीय शब्द लोकप्रिय हो रहे हैं,  दूसरी ओर हिन्दी की
लो.ओ.सी. को और संकीर्ण बनाया जा रहा है।
राजनीति में छोटी-छोटी पार्टियां बनाकर सत्ता में भागीदारी के अवसर
निकालना जबसे संभव हुआ है, तबसे हिन्दी की बोलियों के पृथक अस्तित्व की
मांग करना भी लाभप्रद और सुविधाजनक हो गया है। छोटी राजनीतिक पाटियों ने
हमारे लोकतंत्र को अस्थिर और सिद्धान्तविहीन बना दिया है, छोटी-छोटी
बोलियों की पृथक पहचान का आग्रह करने वाले हिन्दी के गढ़ में सेंध लगा
रहे हैं। हमें उनका विरोध करना चाहिए, उनसे सावधान रहना चाहिए।
हमें हिन्दी को अद्यतन बनाने के लिए जिन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए,
उन बातों की ओर किसी का ध्यान नहीं है। हमारे विश्वविद्यालयों, हिन्दी
सेवी संस्थाओं, हिन्दी के प्रतिष्ठानों के पास ऐसी कोई योजना नहीं है कि
हिन्दी में आने वाले नये शब्दों का संरक्षण, अर्थ विवेचन और प्रयोग का
नियमन किया जा सके। पिछड़ी का विरोधी शब्द अगड़ी हिन्दी में इन दिनों आम
है, पर अगड़ी का शब्दकोशीय अर्थ अर्गला या अडंगा है। अंग्रेज़़ी  की एक
अभिव्यक्ति है एफ.आर.आई. अर्थात् फर्स्ट इनफार्मेशन रिपोर्ट। हिन्दी में
इसे प्रथमदृष्ट्या प्रतिवेदन कहते हैं या प्राथमिकी। हिन्दी शब्दकोशों
में ये दोनों नहीं हैं। यह शब्द विधि व्यवस्था का, अपराध जगत का, जनसंचार
माध्यमों का बहुप्रयुक्त शब्द है। दादा, धौंस, घपला, घोटाला, कबूतरबाजी,
हिट जैसे लोक प्रचलित शब्द भी हमारे शब्दकोशों में नहीं हैं। दूरदर्शन
देखनेवालों को घंटे-आध घंटे में ब्रेक शब्द का सामना करना पड़ता है। पर
ब्रेक को अभी शब्द कोशों में ब्रेक नहीं मिला है। और तो और बाहुबली का
नया अर्थ भी हमारे शब्दकोशों में दर्ज नहीं है।
अंग्रेज़़ी  में हर दस साल बाद शब्द कोशों के नये संस्करण प्रकाशित करने
की परंपरा है। वैयाकरणों, समाजशास्त्रियों, मीडिया विशेषज्ञों,
पत्रकारों, मनोवैज्ञानिकों का एक दल निरंतर अंग्रेज़़ी में प्रयुक्त होने
वाले नये शब्दों  की टोह लेता रहता है। यही कारण है कि पंडित, आत्मा,
कच्चा, झुग्गी, समोसा, दोसा, योग जैसे शब्द अंग्रेज़़ी के शब्दकोशों की
शोभा बढ़ा रहे हैं। अंग्रेज़़ी  में कोई शुद्ध अंग्रेज़़ी  की बात नहीं
करता। संप्रेषणीय अंग्रेज़़ी  की, अच्छी अंग्रेज़़ी  की बात करता है।
अंग्रेज़़ी  भाषा की विश्वव्यापी ग्राह्यता का यही कारण है कि वह निरंतर
नये शब्दों का स्वागत करने में संकोच नहीं करती। हाल ही में ऑक्सफोर्ड
एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी का नया संस्करण जारी हुआ है। इसमें विश्व की
विभिन्न भाषाओं के करीब तीन हजार शब्द शामिल किये गये हैं। बंदोबस्त,
बनिया, जंगली, गोदाम जैसे ठेठ भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, पर वे
अंग्रेज़़ी  के शब्दकोश में हैं क्योंकि अंग्रेज़़ी  भाषी उनका प्रयोग
करते हैं। इन नये शब्दों में एक बड़ा रोचक शब्द है चाऊ या चाव जिसका अर्थ
दिया गया है- चोर, बदमाश, अविवाहित मां। इस चाव शब्द का एक रूप चाहें भी
है। सूरदास ने चाव शब्द के चबाऊ रूपान्तर का प्रयोग अपनी कविता में किया
है- सूरदास बलभद्र चबाऊ जनमत ही को धूत। हिन्दी का चाव या चाईं शब्द सात
समंदर पार तो संग्रहणीय माना जाता है, पर अपने घर के शब्दकोशों में नहीं।
हिन्दी क्षेत्र में इतने विश्वविद्यालय हैं, हिन्दी का प्रचार-प्रसार
करने वाली इतनी संस्थाएँ हैं, क्या कोई ऐसी योजना नहीं बन सकती कि हिन्दी
में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों को रिकॉर्ड किया जा सके। हम प्रत्येक
दस वर्ष में जनगणना पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, क्या हिन्दी की शब्द
गणना पर कुछ खर्च नहीं किया जा सकता? कोई हिन्दी समाचार पत्र अपने
रविवासरीय संस्करण में पाठकों से आमंत्रित कर प्रत्येक सप्ताह उसके
क्षेत्र में प्रचलित हिन्दी के सौ नये शब्द भी प्रकाशित करे तो वर्ष भर
में 5000 से भी अधिक शब्द समेटे जा सकते हैं। वैश्विकीकरण के साथ, नई
उपभोक्ता वस्तुओं के साथ, नये मनोरंजनों के साथ, लोकतंत्र की नई-नई
व्यवस्थाओं के साथ जो सैकड़ों शब्द हिन्दी में आ रहे हैं, उन्हें काल की
आंधी में उड़ जाने देना गैर जिम्मेदारी भी है और लापरवाही भी है। वह
हिन्दी के प्रति हमारी संवेदनविहीनता का द्योतक तो है ही। हमें आज हिन्दी
के शुद्धतावादी दीवाने नहीं, हिन्दी के संवेदनशील जानकार चाहिए।



लेखक : कांति कुमार जैन
लेख भेजने वाले सज्जन : विजय कुमार मल्होत्रा