Friday, April 19, 2013

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Tuesday, December 21, 2010

हिंदी में विदेशी शब्द अच्छे पर उनकी भरमार नहीं:वेदमित्र

हिंदी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का समावेश करने के बारे में भाषाशास्त्रियों में चर्चाएं चलती रहती हैं। हिंदी ही क्या, विभिन्न भाषाएं शब्दों के आदान-प्रदान से समृद्ध ही होती हैं। नए शब्द बहुधा एक
नई ताजगी अपने साथ लाते हैं, जिससे भाषा का संदर्भ व्यापक होता है। उदाहरण के लिए मॉनसून शब्द पूर्वी एशिया से भारत आया और ऐसा रम गया जैसे यहीं का मूलवासी हो। दक्षिण भारत से 'जिंजर' सारी दुनिया में चला गया और विडंबना यह है कि अनेक लोग उसे पश्चिम की देन मानते हैं। इसी प्रकार
उत्तर भारत के योग शब्द से स्वास्थ्य लाभ करने वाले सारे संसार में फैले हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इंडोनेशिया आदि से 'सूनामी' की लहर ऐसी उठी जिसकी शक्ति सारे संसार ने अनुभव की। 'रेडियो' कहीं भी पैदा हुआ, वह सार्वभौमिक बन गया। अंग्रेजी का 'बिगुल' पूरे दक्षिण एशिया में बजता है। केवल शक्तिशाली शब्द ही दूसरी भाषाओं में नहीं जाते। अनेक साधारण-से दिखने वाले शब्द भी महाद्वीपों को पार कर जाते हैं। जब लोग विदेश से लौटते हैं, तो वे अपने साथ वहां दैनिक व्यवहार में उपयोग होने वाले कुछ शब्दों को भी अपने साथ बांध लाते हैं। अंग्रेज जब इंग्लैंड वापस गए, तो भारत के 'धोबी' और 'आया' को भी साथ ले गए। इसी प्रकार पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीका से लौटे भारतीयों के साथ 'किस्सू' (चाकू), 'मचुंगा' (संतरा) और 'फगिया' (झाड़ू) भी चली आई।
दूसरी भाषा के शब्द देशी हों या विदेशी, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर  पड़ता है उनकी मात्रा से। दाल में नमक की तरह दूसरी भाषा के शब्द उसे स्वादिष्ट बनाते हैं, लेकिन उनकी बहुतायत उसे गले से नीचे नहीं उतरने देती। जब हिंदी के कुछ हितैषी अपनी भाषा में अंग्रेजी की बढ़ती घुसपैठ का विरोध करते हैं, तो अंग्रेजीवादी अल्पसंख्यक खीज उठते हैं। वे अपने विरोधियों पर आरोप लगाते हैं कि वे लोग हिंदी को सभी अच्छी धाराओं से काटकर उसे पोखर बनाना चाहते हैं। परंतु कोई भी स्वाभिमानी जल प्रबंधक एक
स्वच्छ नदी में किसी भी छोटी-मोटी जलधारा को प्रवेश देने की अनुमति देने से पूर्व यह जान लेना चाहेगा कि वह धारा कूड़े कचरे से मुक्त हो। अंग्रेजी के कुछ समर्थक हिंदी पर अनम्यता और दूसरी भाषाओं के साथ मिलकर काम न करने का आरोप लगाते हैं। लेकिन रेलगाड़ी, बमबारी, डॉक्टरी, पुलिसकर्मी और रेडियोधर्मी विकिरण जैसे अनेक शब्द हमने बनाए हैं। उनका प्रयोग करने में किसी भी हिंदीभाषी को आपत्ति नहीं। सौभाग्यवश मैं उस  पीढ़ी का व्यक्ति हूं जिसने गणित, भूगोल, भौतिकी और रसायन शास्त्र आदि विषय हिंदी में पढ़े। लघुतम, महत्तम, वर्ग, वर्गमूल, चक्रवृद्धि ब्याज और अनुपात जैसे शब्दों से मैंने अंकगणित सीखा। उच्च गणित में समीकरण, ज्या, कोज्या, बल, शक्ति और बलों के त्रिभुजों का बोलबाला रहा। भूगोल पढ़ते समय उष्णकटिबंध, जलवायु, भूमध्यरेखा, ध्रुव और पठार जैसे शब्द सहज भाव से मेरे शब्द- भंडार का अंग बन गए। विज्ञान में द्रव्यमान, भार, गुरुत्वाकर्षण, व्युत्क्रमानुपात, चुंबकीय क्षेत्र, मिश्रण, यौगिक और रासायनिक क्रिया आदि शब्दों ने मुझे कभी भयभीत नहीं किया। और न ही किसी को चिकित्सक या लेखाकार घोषित करते हुए मेरे मन में किसी प्रकार का हीनभाव आया। स्वयं को सिविल अभियंता (अंग्रेजी के साथ मिलाकर बनाया गया  शब्द) कहने में मैं आज तक गर्व अनुभव करता हूं। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मैथिलीशरण गुप्त, देवराज दिनेश, रामधारी सिंह दिनकर और गोपालदास नीरज आदि को अपनी  भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेजी की शरण में जाने की आवश्यकता कभी नहीं हुई। महादेवी वर्मा बिना अंग्रेजी की सहायता के तारक मंडलों की यात्राएं करती रहीं, हरिवंशराय बच्चन ने अंग्रेजी की सरिता में गोते खूब लगाए, अपने पाठकों को उसके अनेक रत्न भी निकालकर सौंपे, परंतु उस भाषा को अपने मूल लेखन में फटकने तक नहीं दिया। आचार्य चतुरसेन शास्त्री,
वृंदावनलाल वर्मा और प्रेमचंद अपनी भाषा से करोड़ों पाठकों के पास पहुंचे। बिना किसी मीठी लपेट के मैं कहना चाहूंगा कि यह सब अंग्रेजी के पक्षधरों के गुप्त षड्‌यंत्र का परिणाम है। जिस भाषा को अस्थायी रूप से सह-राष्ट्रभाषा की मान्यता दी गई थी, उसके प्रभावशाली अनुयायी एक ओर जय हिंदी का नारा लगाते रहे और दूसरी ओर हिंदी की जड़ें काटने में लगे रहे। उन्होंने पहले उच्च शिक्षा और फिर माध्यमिक शिक्षा, हिंदी के बदले अंग्रेजी में दिए जाने में भरपूर शक्ति लगा दी। यदि हिंदी किसी प्रकार उनके चंगुल से बच भी गई, तो तमाम अंग्रेजी तकनीकी शब्द उसमें ठूंस दिए गए, यह बहाना बनाकर कि हिंदी के शब्द संस्कृतनिष्ठ और जटिल हैं। भौतिकी कठिन है, फिजिक्स सरल है। विकल्प आंखों के आगे अंधेरा ला देता है, अएल्टरनेटिव तो भारत का जन्मजात शिशु भी समझता है। धीरे-धीरे चलनेवाली इस मीठी छुरी से कटी भारत की भोली जनता पर इन पंद्रह-बीस वर्षों में एक ऐसा मुखर अल्पमत छा गया है, जो सड़क को रोड, बाएं-दाएं को लैफ्ट-राइट, परिवार को फैमिली, चाचा-मामा को अंकल, रंग को कलर, कमीज को शर्ट, तश्तरी को
प्लेट, डाकघर को पोस्ट अएफिस और संगीत को म्यूजिक आदि शब्दों से ही पहचानता है। उनके सामने हिंदी के साधारण से साधारण शब्द बोलिए, तो वे टिप्पणी करते हैं कि आप बहुत शुद्ध और क्लिष्ट हिंदी बोलते हैं।
वे कहते हैं- एक्सक्यूज मी, अभी आप पेशंट को नहीं देख सकते। या, मैं कनॉट प्लेस में ही शॉपिंग करता हूं। या, मेरा हस्बेंड बिजनेसमैन है। यह भाषाई दिवालियापन नहीं तो और क्या है। विदेशी ग्राहकों से अंग्रेजी में बात करने की क्षमता वाले लोगों की सेना तैयार करने की धुन में हम भारत के करोड़ों युवक-युवतियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर रहे हैं। उनकी क्षमताओं का पूर्णतः विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। हिंदी केवल चलचित्र बनाने वालों की भाषा नहीं है। न
ही यह केवल उनके लिए है जो अपने कुछ मित्रों के साथ बैठकर वाह-वाह करने से संतुष्ट हो जाते हों। यह उन सभी के लिए होनी चाहिए जिनमें अपना जीवन विज्ञान, न्याय, शिक्षा, शोध और विकास के क्षेत्र में लगाने की क्षमता हो।

साभारः नवभारत टाइम्स

Friday, October 22, 2010

देश विदेश के लोग हिंदी सीखकर भारत जैसे उभरते बाज़ार में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं

देश विदेश के लोग हिंदी सीखकर भारत जैसे उभरते बाज़ार में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं:  अखिलेश शुक्ल
वर्तमान में इंटरनेट आम आदमी की ज़िंदगी का अहम हिस्सा होता जा रहा है।
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वीं शताब्दी के प्रारंभ में किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इतनी ज़ल्दी यह लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करेगा। आम उपयोक्ता प्रायः इ-मेल, गाने, वाल पेपर, आदि सर्च करता है। इसके साथ ही उसका परिचय ब्लागिंग से भी हो जाता है। ब्लागिंग की शुरुआत हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है। अँगरेज़ी के ब्लॉग इस शताब्दी के प्रारंभ में इंटरनेट पर आ गए थे। जिन्हें अमरीकी इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं द्वारा बनाया गया था। हिंदी ब्लागिंग की शुरुआत हुए अभी लगभग 5 या 6 वर्ष ही हुए हैं। यूनिकोड़ की
सुविधा उपलब्ध हो जाने के बाद हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में ब्लागिंग
आसान हो गई है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसके माध्यम से अपनी बात बिना किसी
रूकावट या कांट-छांट के एक दूसरे तक पहुंचाई जा सकती है। वह भी लगभग
मुफ़्त में।

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आज ब्लॉग पर हिंदी में कई विषयों पर सामग्री उपलब्ध है। जिसमें दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। बहुत से ब्लॉग हिंदी साहित्य से भी जुडे़ हुए हैं। वे लगातार हिंदी में साहित्यिक सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं। ब्लॉग पर लगभग प्रत्येक विधा का साहित्य उपलब्ध है। लेकिन यहां कविता व कहानी के साथ साथ तत्कालीन साहित्यिक जानकारी के ब्लॉग ही अधिक हैं।

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आज भले ही हिंदी साहित्य ब्लॉग पर अपनी शैशवास्था में हो पर आने वाला समय निश्चित रूप से उसी का है। वर्तमान में हिंदी के साहित्यकारों की पहुंच भी इन ब्लॉगों पर लगभग 10 प्रतिशत के आसपास ही है। लेकिन इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की बढ़ती संख्या आश्वस्त करती है कि हिंदी का दायरा अब देश की सीमाएं लांघकर दुनिया भर में अपनी पैठ बना रहा है।

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सोशल नेटवर्किग से जुड़ी विभिन्न वेबसाइटें भी साहित्यकारों-लेखकों को एक दूसरे के क़रीब ला रही हैं। इनके माध्यम से भी हिंदी साहित्य से जुड़े सभी उपयोगकर्त्ता एक दूसरे  ब्लॉग पर भ्रमण करते हैं। जिससे उन्हें एक दूसरे के द्वारा किए गए लेखन के संबंध में जानकारी मिलती है। सोशल नेटवर्किग साइट साहित्यकारों रचनाकारों के सुख दुख बांटने का भी दायित्व निभा रही हैं।

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लेकिन अत्यंत दुख के साथ यह लिखना पड़ रहा है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य
की सुधबुध लेने वाला कोई नहीं है। इस पर उपलब्ध साहित्य को हिंदी में कोई तवज्ज़ो भी नहीं दी जाती है। पत्र पत्रिकाओं में उपलब्ध साहित्य की अपेक्षा इसे उपेक्षा भाव से ही देखा जाता है। इसे हल्क़ा फुलका, चलताऊ व दोयम दर्ज़े का मानकर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। ब्लॉग के साहित्य लेखक को तो कोई साहित्यकार मानने को भी तैयार ही नहीं है। जबकि वह बिना किसी विवाद, गुट या विमर्श में पड़े लगातार सृजन कर रहा है। ब्लॉगर न तो प्रगतिशीलता का अंध भक्त है और न ही वह परंपरावादी है। उसे न तो बाज़ारवाद से कोई लेना देना है और न ही वह प्राचीनतम मान्यताओं से बंधकर लिख रहा है। वह तो केवल वह रच रहा है जिसे दुनिया भर में स्वीकार किया जाए। आज वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें तो कहीं भी किसी परंपरा विशेष का विरोध या समर्थन नहीं दिखाई देगा। विश्व में लगभग प्रत्येक स्थान पर उन्हीं विषयों को तरहीज दी जाती है जो आम आदमी के कल्याण के हों। फिर भले ही चाहे वे किसी परंपरा अथवा सिद्धांत से निकलकर सामने आए हों। परंपरा भंजक का यह कार्य दुनियाभर के ब्लॉगर्स सफलतापूर्वक कर रहे हैं। इस में हिंदी साहित्य के ब्लागर्स का योगदान कम नहीं है।

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आज ब्लॉग पर जितने भी कवि मौज़ूद है उन्हें मुश्किल से ही साहित्यिक पत्रिकाओं में स्थान मिलता है। साहित्यिक पत्रिकाओं की बात तो दूर किसी सामान्य समाचार पत्र पत्रिकाओं तक में भी इन्हें स्थान नसीब नहीं है। इसका कारण पत्रिकाओं द्वारा शायद यह धारणा बना लेना है कि ब्लॉग के कवि, कवि नहीं हैं। जबकि आज ब्लॉग पर गंभीर व आम आदमी के सरोकारों से जुड़ी हुई कविताएं प्रकाशित की जा रही हैं। इनमें मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर विचार किया जा रहा है। इन कविताओं पर ब्लॉग पाठकों की टिप्पणियां भी लगातार पढ़ने में आती हैं। लेकिन ब्लॉग-काव्य पर हिंदी के आलोचकों,
समीक्षकों का ध्यान पता नहीं कब जाएगा?

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ब्लॉग पर अन्य विधाओं में जितनी भी रचनाएं हैं भले ही वह कम हों पर उच्च कोटि की हैं। इन्हें किसी भी तरह से दोयम दर्ज़े की रचनाएं नहीं सिद्ध किया जा सकता। प्रिंट मीडिया के लेखक ब्लॉग पर प्रायः कम ही लेखन का कार्य करते हैं। वे शायद यह मानकर चलते हैं कि इन रचनाओं को कोई पढ़ेगा भी नहीं। लेकिन ब्लागवाणी, चिटठाजगत जैसे ब्लाग एग्रीगेटर्स हिंदी ब्लॉग को लोकप्रिय बना रहे हैं यह प्रसन्नता की बात है।

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वहीं अंग्रेज़ी  के एग्रीगेटर्स जैसे टेक्नोरेटी, ब्लॉगलाग, ब्लागर्स इंडिया आदि भी हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार में पीछे नहीं हैं। गूगल द्वारा उपलब्ध कराई गई ब्लॉग बनाने की सुविधा से हर हिंदी प्रेमी अब भलीभांति परिचित हो गया है। अन्य वेबासाईटें भी यह सुविधा उपलब्ध कराकर हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार में महती योगदान दे रही हैं। इसी का परिणाम है कि अब देश भर में कहीं हिंदी का विरोध दिखाई नहीं देता है।
बल्कि देश विदेश के लोग हिंदी सीखकर भारत जैसे उभरते बाज़ार में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं।

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ब्लॉग पर उपलब्ध हिंदी साहित्य की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता इसका निःशुल्क उपलब्ध होना है। प्रिंट मीडिया के विपरीत ब्लॉग की साहित्यिक रचनाएं लम्बे समय तक पाठकों की पहुंच में रहती हैं। हां यदि ब्लागर्स यदि स्वयं इन्हें  हटा दे तो और बात है।

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आज आवश्यकता इस बात की है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य को भी गंभीर व विचार योग्य साहित्य माना जाए। आलोचक, समीक्षक इन विभिन्न ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य पर विचार कर अपनी महत्वपूर्ण राय दें। इस साहित्य पर उनके सटीक विश्लेषण से ब्लॉगर्स को भी लाभ होगा। वहीं हिंदी ब्लॉग लेखन के स्तर में अपेक्षित सुधार होगा। यह प्रत्येक हिंदी साहित्य के शुभचिंतक का दायित्व बनता है कि वह ब्लॉगर्स को मार्गदर्शन प्रदान करें। 
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अब हिंदी साहित्य से जुड़े ब्लॉग दुनिया भर में पढ़े जा रहे हैं। देश विदेश में हिंदी प्रेमी व रचनाकार इन्हें लिख रहे हैं। इन पर व्यक्त किए गए विचार केवल ब्लॉगर्स के विचार न होकर हिंदी की साहित्य की नवीन अवधारणा का प्रतीक बन रहा है। अतः इसलिए भी इनपर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। अब वह समय आ गया है जब गिैर हिदी भाषी भी हिंदी से जुड़ेंगे। हिंदी पर समूचे विश्व का ध्यान इन ब्लॉग के कारण भी हैं। इसलिए आलोचकों समीक्षकों का यह दायित्व बनता है कि वे इन पर समुचित ध्यान दें।

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आने वाले दस वर्ष के अंदर ब्लॉग हिंदी साहित्य के विकास का प्रतीक होगा। दुनिया की अन्य भाषाएं भी इस सर्वसुलभ माध्यम का इस्तेमाल अपनी भाषा व उसके साहित्य के विकास के लिए कर रही हैं।

तो फिर हिंदी क्यों पीछे रहे?
अखिलेश शुक्ल
संपादक, कथाचक्र
3, 
तिरूपति नगर, इटारसी, मध्यप्रदेश – 461111
मो.- 94244-87068

अनुवादक का द्वि-सांस्कृतिक होना बेहद ज़रूरी :योगेश भटनागर

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में अनुवाद का महत्व पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. साहित्य के अनुवाद के माध्यम से हम केवल किसी अन्य भाषा के लेखन से ही परिचित नहीं होते बल्कि उस भाषा समाज की सामजिक-सांस्कृतिक परंपराओं  और विशेषताओं से भी परिचित होते हैं. अनुवादक एक भाषा में रचित साहित्य के अर्थ और रूप  भर को नहीं बल्कि उसके मूल्यों और सरोकारों को भी दूसरी भाषा में प्रकट करने का दायित्व निभाता है. ऐसा करने के लिए उसका द्विभाषिक के साथ साथ द्विसांस्कृतिक होना भी अपरिहार्य शर्त है. इस स्तर पर साहित्य का अनुवादक मात्र अनुसरणकर्ता  नहीं होता बल्कि मौलिक लेखक की भाँति ही सृजनकर्ता होता है."

ये विचार अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय  के रूसी अध्ययन संकाय के तत्वावधान में संपन्न 'चेखव का अनुवादविषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर पर बोलते हुए प्रमुख चेखवविद लेखक और अनुवादक प्रो.योगेश चन्द्र भटनागर ने व्यक्त किये.

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने बताया कि  इस संगोष्ठी-कार्यशाला में स्वीकृत किए  गए विभिन्न भाषाओं के अनुवादों को शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा. उन्होंने इसे समारोह की उपलब्धि और सफलता माना कि इसमें जहाँ एक ओर २० वरिष्ठ अनुवादक सम्मिलित हुए वहीं  इसके माध्यम से नए चेहरे के रूप में ११ युवा अनुवादक भी सामने आए जो हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रूसी भाषा से सीधे अनुवाद की संभावनाओं के विस्तार का सूचक है.

उल्लेखनीय है कि दो दिन के इस समारोह में ६ अलग-अलग समूहों में ३२ अनुवादकों द्वारा विभिन्न भारतीय भाषाओं में किये गएचेखव के १२ छोटे-बड़े नाटकों के अनुवादों का विश्लेषण करके उन्हें अंतिम रूप दिया गया. इस कार्य में द्विभाषिक विद्वानों के साथ साथ लक्ष्य भाषाओं हिंदी, मलयालम, तेलुगु, मराठी, ओडिया और बांग्ला  के मातृभाषा-भाषी विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया.


चेखव के भारतीय विशेषज्ञ प्रो.शंकर बसु, प्रो.योगेश भटनागर, प्रो.वरयाम सिंह और प्रो.पंकज मालवीय की उपस्थिति सभी प्रतिभागियों के लिए अत्यंत प्रेरणा-दायक रही.

कार्यशाला का निर्देशन प्रो.चारुमति रामदास तथा संयोजन डॉ.सत्यभान सिंह राजपूत ने किया. धन्यवाद ज्ञापन प्रो.मोनिका ने किया.

प्रस्तुतकर्ता ऋषभ 

भाषा-मिश्रण से भाषा-प्रदूषण

जब दो संस्कृतियों का मिलन होता है तो भाषा-मिश्रण स्वाभाविक है। बोलचाल में तो यह मिश्रण बहुत देर से चला आ रहा है। लिखित में भी दूसरी भाषाओं के कुछ कुछ शब्द आवश्यकतानुसार आते रहे हैं परंतु अब जिस प्रकार का मिश्रण समाचार-पत्रों के माध्यम से सामने आ रहा है वह किसी षढ़यंत्र का हिस्सा लगता है।
 
किसी भी देश में द्विभाषिकता एक अच्छी बात है परंतु अपनी भाषा या भाषाओं को नीचे गिरा कर अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देना हमारी दीर्घकालीन दासता के अवशेष हैं जिनसे हम भारतीय मुक्त नहीं हो पा रहे बल्कि उसमें और फंसते जा रहे हैं।  यह भाषा-मिश्रण सामन्य स्थिति को लांघ कर भाषा-प्रदूषण की स्थिति तक आ पहुंचा है। इस प्रकार का मिश्रण अपनी भाषा को ही चुनौती देने वाली बात है कि तुम इतनी शक्तिहीन हो कि तुम अंग्रेज़ी की वैसाखी के बिना चल ही नहीं सकतीं। यह देश का अपमान है, हमारे संविधान की अवमानना है और खुले आम हमारी सब भारतीय भाषाओं को चुनौती है, हमारी अभिव्यक्ति और हमारी अस्मिता का आह्वान है ।
 
इस भाषा-मिश्रण का एक दूसरा पक्ष यह है कि इस प्रकार का मिश्रण हमारा सामान्य रोज़मर्रा का व्यवहार इस सीमा तक बन गया है कि हम उस खिचड़ी भाषा के बिना अपनी कोई बात  कह ही नहीं सकते -  न हिन्दी में और न ही अंग्रेज़ी में। इस कारण अपने व्यक्तित्व में दोनों भाषाओं के विकास का अवसर हम खो देते हैं।  भाषा का संपोषण तो उसके प्रयोग से ही होता है। जब हिन्दी के नए नए शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए याद करने का और उन्हें आत्मसात् करने का अवसर होता है वहां तब हम अंग्रेज़ी शब्दों को वहां अनायस ले आते हैं और जहां अंग्रेज़ी का शब्द समझ में नहीं आता वहां अपनी भारतीय भाषा में बोलना शुरू कर देते हैं। इससे दोनों ही भाषाओं में हमारा व्यक्तिगत भाषा-विकार अवरुद्ध होता है।  ऐसा करने के कारण हम ऐसी आशा कैसे कर सकते हैं कि कि चाहने पर भी ठीक अवसर पर बोलने में या लिखने में हमें वे शब्द अनायस स्मरण हो आएं और उन भाषाओं की शब्द-शक्ति हमारी भाषिक प्रवीणत का हिस्सा बन जाए । इस तरह धीरे धीरे शब्द हमारी चेतना से अवचेतना में चले जाते हैं। यह भाषा-ह्रास की प्रक्रिया की शुरुआत है और धीरे धीरे जनमानस में भाषा कमज़ोर हो जाती है। जितनी मात्रा में हम हिन्दी में अग्रेज़ी लाएंगे उनी मात्रा में हिन्दी का ह्रास अवश्यंभावी है। आज भारत कि सामान्य स्थिति यह है कि अधिकांश भारतीय न तो अंग्रेज़ी में प्रवीणता हासिल कर सके हैं और न ही अपनी भारतीय भाषा में। दोनों को मिला कर अंधपंगुन्याय से काम ज़रूर चल जाता है। खिचड़ी भाषा एक अभिशाप है जो हमें ले डूबेगा। हम अपनी बात न अंग्रेज़ी में ठीक से कह पाते हैं और न ही अपनी भाषा में। यह कौनसे विकसित देश की कहानी है? हम आज न घर के रहे न घाट के रहे। यह कैसी विडंबना है!
 
जिस स्तर का भाषा-मिश्रण हिन्दी के समाचार-पत्रों में दिखाई दे रहा है अगर उसको न रोका गया तो उसे रोकने के लिए कुछ करना पड़ेगा। अगर ये भूत बातों से नहीं मानेंगे तो लातें विभिन्न रूपों में आकर इनको लताड़ेंगी। इन्दौर की हिन्दी समाचार-पत्रों की होलिका उसका उपक्रम है।
 लेखक:डा- सुरेन्द्र 
गंभीर