Friday, October 22, 2010

देश विदेश के लोग हिंदी सीखकर भारत जैसे उभरते बाज़ार में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं

देश विदेश के लोग हिंदी सीखकर भारत जैसे उभरते बाज़ार में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं:  अखिलेश शुक्ल
वर्तमान में इंटरनेट आम आदमी की ज़िंदगी का अहम हिस्सा होता जा रहा है।
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वीं शताब्दी के प्रारंभ में किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इतनी ज़ल्दी यह लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करेगा। आम उपयोक्ता प्रायः इ-मेल, गाने, वाल पेपर, आदि सर्च करता है। इसके साथ ही उसका परिचय ब्लागिंग से भी हो जाता है। ब्लागिंग की शुरुआत हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है। अँगरेज़ी के ब्लॉग इस शताब्दी के प्रारंभ में इंटरनेट पर आ गए थे। जिन्हें अमरीकी इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं द्वारा बनाया गया था। हिंदी ब्लागिंग की शुरुआत हुए अभी लगभग 5 या 6 वर्ष ही हुए हैं। यूनिकोड़ की
सुविधा उपलब्ध हो जाने के बाद हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में ब्लागिंग
आसान हो गई है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसके माध्यम से अपनी बात बिना किसी
रूकावट या कांट-छांट के एक दूसरे तक पहुंचाई जा सकती है। वह भी लगभग
मुफ़्त में।

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आज ब्लॉग पर हिंदी में कई विषयों पर सामग्री उपलब्ध है। जिसमें दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है। बहुत से ब्लॉग हिंदी साहित्य से भी जुडे़ हुए हैं। वे लगातार हिंदी में साहित्यिक सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं। ब्लॉग पर लगभग प्रत्येक विधा का साहित्य उपलब्ध है। लेकिन यहां कविता व कहानी के साथ साथ तत्कालीन साहित्यिक जानकारी के ब्लॉग ही अधिक हैं।

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आज भले ही हिंदी साहित्य ब्लॉग पर अपनी शैशवास्था में हो पर आने वाला समय निश्चित रूप से उसी का है। वर्तमान में हिंदी के साहित्यकारों की पहुंच भी इन ब्लॉगों पर लगभग 10 प्रतिशत के आसपास ही है। लेकिन इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की बढ़ती संख्या आश्वस्त करती है कि हिंदी का दायरा अब देश की सीमाएं लांघकर दुनिया भर में अपनी पैठ बना रहा है।

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सोशल नेटवर्किग से जुड़ी विभिन्न वेबसाइटें भी साहित्यकारों-लेखकों को एक दूसरे के क़रीब ला रही हैं। इनके माध्यम से भी हिंदी साहित्य से जुड़े सभी उपयोगकर्त्ता एक दूसरे  ब्लॉग पर भ्रमण करते हैं। जिससे उन्हें एक दूसरे के द्वारा किए गए लेखन के संबंध में जानकारी मिलती है। सोशल नेटवर्किग साइट साहित्यकारों रचनाकारों के सुख दुख बांटने का भी दायित्व निभा रही हैं।

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लेकिन अत्यंत दुख के साथ यह लिखना पड़ रहा है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य
की सुधबुध लेने वाला कोई नहीं है। इस पर उपलब्ध साहित्य को हिंदी में कोई तवज्ज़ो भी नहीं दी जाती है। पत्र पत्रिकाओं में उपलब्ध साहित्य की अपेक्षा इसे उपेक्षा भाव से ही देखा जाता है। इसे हल्क़ा फुलका, चलताऊ व दोयम दर्ज़े का मानकर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। ब्लॉग के साहित्य लेखक को तो कोई साहित्यकार मानने को भी तैयार ही नहीं है। जबकि वह बिना किसी विवाद, गुट या विमर्श में पड़े लगातार सृजन कर रहा है। ब्लॉगर न तो प्रगतिशीलता का अंध भक्त है और न ही वह परंपरावादी है। उसे न तो बाज़ारवाद से कोई लेना देना है और न ही वह प्राचीनतम मान्यताओं से बंधकर लिख रहा है। वह तो केवल वह रच रहा है जिसे दुनिया भर में स्वीकार किया जाए। आज वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें तो कहीं भी किसी परंपरा विशेष का विरोध या समर्थन नहीं दिखाई देगा। विश्व में लगभग प्रत्येक स्थान पर उन्हीं विषयों को तरहीज दी जाती है जो आम आदमी के कल्याण के हों। फिर भले ही चाहे वे किसी परंपरा अथवा सिद्धांत से निकलकर सामने आए हों। परंपरा भंजक का यह कार्य दुनियाभर के ब्लॉगर्स सफलतापूर्वक कर रहे हैं। इस में हिंदी साहित्य के ब्लागर्स का योगदान कम नहीं है।

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आज ब्लॉग पर जितने भी कवि मौज़ूद है उन्हें मुश्किल से ही साहित्यिक पत्रिकाओं में स्थान मिलता है। साहित्यिक पत्रिकाओं की बात तो दूर किसी सामान्य समाचार पत्र पत्रिकाओं तक में भी इन्हें स्थान नसीब नहीं है। इसका कारण पत्रिकाओं द्वारा शायद यह धारणा बना लेना है कि ब्लॉग के कवि, कवि नहीं हैं। जबकि आज ब्लॉग पर गंभीर व आम आदमी के सरोकारों से जुड़ी हुई कविताएं प्रकाशित की जा रही हैं। इनमें मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर विचार किया जा रहा है। इन कविताओं पर ब्लॉग पाठकों की टिप्पणियां भी लगातार पढ़ने में आती हैं। लेकिन ब्लॉग-काव्य पर हिंदी के आलोचकों,
समीक्षकों का ध्यान पता नहीं कब जाएगा?

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ब्लॉग पर अन्य विधाओं में जितनी भी रचनाएं हैं भले ही वह कम हों पर उच्च कोटि की हैं। इन्हें किसी भी तरह से दोयम दर्ज़े की रचनाएं नहीं सिद्ध किया जा सकता। प्रिंट मीडिया के लेखक ब्लॉग पर प्रायः कम ही लेखन का कार्य करते हैं। वे शायद यह मानकर चलते हैं कि इन रचनाओं को कोई पढ़ेगा भी नहीं। लेकिन ब्लागवाणी, चिटठाजगत जैसे ब्लाग एग्रीगेटर्स हिंदी ब्लॉग को लोकप्रिय बना रहे हैं यह प्रसन्नता की बात है।

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वहीं अंग्रेज़ी  के एग्रीगेटर्स जैसे टेक्नोरेटी, ब्लॉगलाग, ब्लागर्स इंडिया आदि भी हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार में पीछे नहीं हैं। गूगल द्वारा उपलब्ध कराई गई ब्लॉग बनाने की सुविधा से हर हिंदी प्रेमी अब भलीभांति परिचित हो गया है। अन्य वेबासाईटें भी यह सुविधा उपलब्ध कराकर हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार में महती योगदान दे रही हैं। इसी का परिणाम है कि अब देश भर में कहीं हिंदी का विरोध दिखाई नहीं देता है।
बल्कि देश विदेश के लोग हिंदी सीखकर भारत जैसे उभरते बाज़ार में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं।

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ब्लॉग पर उपलब्ध हिंदी साहित्य की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता इसका निःशुल्क उपलब्ध होना है। प्रिंट मीडिया के विपरीत ब्लॉग की साहित्यिक रचनाएं लम्बे समय तक पाठकों की पहुंच में रहती हैं। हां यदि ब्लागर्स यदि स्वयं इन्हें  हटा दे तो और बात है।

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आज आवश्यकता इस बात की है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य को भी गंभीर व विचार योग्य साहित्य माना जाए। आलोचक, समीक्षक इन विभिन्न ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य पर विचार कर अपनी महत्वपूर्ण राय दें। इस साहित्य पर उनके सटीक विश्लेषण से ब्लॉगर्स को भी लाभ होगा। वहीं हिंदी ब्लॉग लेखन के स्तर में अपेक्षित सुधार होगा। यह प्रत्येक हिंदी साहित्य के शुभचिंतक का दायित्व बनता है कि वह ब्लॉगर्स को मार्गदर्शन प्रदान करें। 
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अब हिंदी साहित्य से जुड़े ब्लॉग दुनिया भर में पढ़े जा रहे हैं। देश विदेश में हिंदी प्रेमी व रचनाकार इन्हें लिख रहे हैं। इन पर व्यक्त किए गए विचार केवल ब्लॉगर्स के विचार न होकर हिंदी की साहित्य की नवीन अवधारणा का प्रतीक बन रहा है। अतः इसलिए भी इनपर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। अब वह समय आ गया है जब गिैर हिदी भाषी भी हिंदी से जुड़ेंगे। हिंदी पर समूचे विश्व का ध्यान इन ब्लॉग के कारण भी हैं। इसलिए आलोचकों समीक्षकों का यह दायित्व बनता है कि वे इन पर समुचित ध्यान दें।

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आने वाले दस वर्ष के अंदर ब्लॉग हिंदी साहित्य के विकास का प्रतीक होगा। दुनिया की अन्य भाषाएं भी इस सर्वसुलभ माध्यम का इस्तेमाल अपनी भाषा व उसके साहित्य के विकास के लिए कर रही हैं।

तो फिर हिंदी क्यों पीछे रहे?
अखिलेश शुक्ल
संपादक, कथाचक्र
3, 
तिरूपति नगर, इटारसी, मध्यप्रदेश – 461111
मो.- 94244-87068

अनुवादक का द्वि-सांस्कृतिक होना बेहद ज़रूरी :योगेश भटनागर

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में अनुवाद का महत्व पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. साहित्य के अनुवाद के माध्यम से हम केवल किसी अन्य भाषा के लेखन से ही परिचित नहीं होते बल्कि उस भाषा समाज की सामजिक-सांस्कृतिक परंपराओं  और विशेषताओं से भी परिचित होते हैं. अनुवादक एक भाषा में रचित साहित्य के अर्थ और रूप  भर को नहीं बल्कि उसके मूल्यों और सरोकारों को भी दूसरी भाषा में प्रकट करने का दायित्व निभाता है. ऐसा करने के लिए उसका द्विभाषिक के साथ साथ द्विसांस्कृतिक होना भी अपरिहार्य शर्त है. इस स्तर पर साहित्य का अनुवादक मात्र अनुसरणकर्ता  नहीं होता बल्कि मौलिक लेखक की भाँति ही सृजनकर्ता होता है."

ये विचार अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय  के रूसी अध्ययन संकाय के तत्वावधान में संपन्न 'चेखव का अनुवादविषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर पर बोलते हुए प्रमुख चेखवविद लेखक और अनुवादक प्रो.योगेश चन्द्र भटनागर ने व्यक्त किये.

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने बताया कि  इस संगोष्ठी-कार्यशाला में स्वीकृत किए  गए विभिन्न भाषाओं के अनुवादों को शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा. उन्होंने इसे समारोह की उपलब्धि और सफलता माना कि इसमें जहाँ एक ओर २० वरिष्ठ अनुवादक सम्मिलित हुए वहीं  इसके माध्यम से नए चेहरे के रूप में ११ युवा अनुवादक भी सामने आए जो हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रूसी भाषा से सीधे अनुवाद की संभावनाओं के विस्तार का सूचक है.

उल्लेखनीय है कि दो दिन के इस समारोह में ६ अलग-अलग समूहों में ३२ अनुवादकों द्वारा विभिन्न भारतीय भाषाओं में किये गएचेखव के १२ छोटे-बड़े नाटकों के अनुवादों का विश्लेषण करके उन्हें अंतिम रूप दिया गया. इस कार्य में द्विभाषिक विद्वानों के साथ साथ लक्ष्य भाषाओं हिंदी, मलयालम, तेलुगु, मराठी, ओडिया और बांग्ला  के मातृभाषा-भाषी विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया.


चेखव के भारतीय विशेषज्ञ प्रो.शंकर बसु, प्रो.योगेश भटनागर, प्रो.वरयाम सिंह और प्रो.पंकज मालवीय की उपस्थिति सभी प्रतिभागियों के लिए अत्यंत प्रेरणा-दायक रही.

कार्यशाला का निर्देशन प्रो.चारुमति रामदास तथा संयोजन डॉ.सत्यभान सिंह राजपूत ने किया. धन्यवाद ज्ञापन प्रो.मोनिका ने किया.

प्रस्तुतकर्ता ऋषभ 

भाषा-मिश्रण से भाषा-प्रदूषण

जब दो संस्कृतियों का मिलन होता है तो भाषा-मिश्रण स्वाभाविक है। बोलचाल में तो यह मिश्रण बहुत देर से चला आ रहा है। लिखित में भी दूसरी भाषाओं के कुछ कुछ शब्द आवश्यकतानुसार आते रहे हैं परंतु अब जिस प्रकार का मिश्रण समाचार-पत्रों के माध्यम से सामने आ रहा है वह किसी षढ़यंत्र का हिस्सा लगता है।
 
किसी भी देश में द्विभाषिकता एक अच्छी बात है परंतु अपनी भाषा या भाषाओं को नीचे गिरा कर अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देना हमारी दीर्घकालीन दासता के अवशेष हैं जिनसे हम भारतीय मुक्त नहीं हो पा रहे बल्कि उसमें और फंसते जा रहे हैं।  यह भाषा-मिश्रण सामन्य स्थिति को लांघ कर भाषा-प्रदूषण की स्थिति तक आ पहुंचा है। इस प्रकार का मिश्रण अपनी भाषा को ही चुनौती देने वाली बात है कि तुम इतनी शक्तिहीन हो कि तुम अंग्रेज़ी की वैसाखी के बिना चल ही नहीं सकतीं। यह देश का अपमान है, हमारे संविधान की अवमानना है और खुले आम हमारी सब भारतीय भाषाओं को चुनौती है, हमारी अभिव्यक्ति और हमारी अस्मिता का आह्वान है ।
 
इस भाषा-मिश्रण का एक दूसरा पक्ष यह है कि इस प्रकार का मिश्रण हमारा सामान्य रोज़मर्रा का व्यवहार इस सीमा तक बन गया है कि हम उस खिचड़ी भाषा के बिना अपनी कोई बात  कह ही नहीं सकते -  न हिन्दी में और न ही अंग्रेज़ी में। इस कारण अपने व्यक्तित्व में दोनों भाषाओं के विकास का अवसर हम खो देते हैं।  भाषा का संपोषण तो उसके प्रयोग से ही होता है। जब हिन्दी के नए नए शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए याद करने का और उन्हें आत्मसात् करने का अवसर होता है वहां तब हम अंग्रेज़ी शब्दों को वहां अनायस ले आते हैं और जहां अंग्रेज़ी का शब्द समझ में नहीं आता वहां अपनी भारतीय भाषा में बोलना शुरू कर देते हैं। इससे दोनों ही भाषाओं में हमारा व्यक्तिगत भाषा-विकार अवरुद्ध होता है।  ऐसा करने के कारण हम ऐसी आशा कैसे कर सकते हैं कि कि चाहने पर भी ठीक अवसर पर बोलने में या लिखने में हमें वे शब्द अनायस स्मरण हो आएं और उन भाषाओं की शब्द-शक्ति हमारी भाषिक प्रवीणत का हिस्सा बन जाए । इस तरह धीरे धीरे शब्द हमारी चेतना से अवचेतना में चले जाते हैं। यह भाषा-ह्रास की प्रक्रिया की शुरुआत है और धीरे धीरे जनमानस में भाषा कमज़ोर हो जाती है। जितनी मात्रा में हम हिन्दी में अग्रेज़ी लाएंगे उनी मात्रा में हिन्दी का ह्रास अवश्यंभावी है। आज भारत कि सामान्य स्थिति यह है कि अधिकांश भारतीय न तो अंग्रेज़ी में प्रवीणता हासिल कर सके हैं और न ही अपनी भारतीय भाषा में। दोनों को मिला कर अंधपंगुन्याय से काम ज़रूर चल जाता है। खिचड़ी भाषा एक अभिशाप है जो हमें ले डूबेगा। हम अपनी बात न अंग्रेज़ी में ठीक से कह पाते हैं और न ही अपनी भाषा में। यह कौनसे विकसित देश की कहानी है? हम आज न घर के रहे न घाट के रहे। यह कैसी विडंबना है!
 
जिस स्तर का भाषा-मिश्रण हिन्दी के समाचार-पत्रों में दिखाई दे रहा है अगर उसको न रोका गया तो उसे रोकने के लिए कुछ करना पड़ेगा। अगर ये भूत बातों से नहीं मानेंगे तो लातें विभिन्न रूपों में आकर इनको लताड़ेंगी। इन्दौर की हिन्दी समाचार-पत्रों की होलिका उसका उपक्रम है।
 लेखक:डा- सुरेन्द्र 
गंभीर

अंग्रेजी थोपने की तैयारी

प्रशासनिक सेवा की नई परीक्षा प्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
प्रबंधन प्रशासन का विकल्प नहीं होता। कलमाड़ी और शीला जैसे मनमोहन प्रबंधकों ने ही राष्ट्रमंडल खेल आयोजनों में भारत की छवि को तार-तार किया है। प्रशासन की कामयाबी का मूलाधार संवेदनशील जनोन्मुखता है, प्रबंधन की सफलता का आधार बनावटी आचार और जुगाड़-व्यवहार है। बावजूद इसके केंद्रीय कार्मिक विभाग सिविल सेवाओं आईएएस, आईएफएस व आईपीएस आदि की प्रवेश परीक्षा प्रथम (प्रीलिम) के लिए प्रबंधक गुरु बनाने का नया प्रस्ताव लाया है। दावा है कि इससे अभ्यर्थियों की प्रशासनिक अभिरुचि क्षमता का मूल्यांकन होगा। 200 अंकों वाले प्रथम प्रश्नपत्र में ताजा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय घटनाएं, भारतीय इतिहास, राजनीति और शासन, आर्थिक सामाजिक विकास, सामान्य विज्ञान के साथ जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन आदि विषय हैं। 200 अंकों के ही दूसरे पर्चे में एमबीए की तर्ज पर अंग्रेजी भाषा का ज्ञान, गणित, तर्कशक्ति परीक्षण, आंकड़ों का विवेचन संवाद, संचार क्षमता आदि विषय शामिल हैं। अब तक सामान्य ज्ञान के 150 अंकों व 150 प्रश्नों वाले पहले पर्चे में प्रति प्रश्न एक अंक मिलता था, लेकिन 300 अंकों वाले दूसरे पर्चे में अभ्यर्थी स्वयं चयनित विषय में अपनी सर्वोत्तम क्षमता प्रकट करता था। अब इसकी जगह अंग्रेजीज्ञान व प्रबंधन के विषय हैं। सो ढेर सारी आलोचनाएं शुरू हो चुकी हैं। दुनिया के किसी भी देश की प्रशासक चयन परीक्षा में विदेशी भाषा ज्ञान की अनिवार्यता नहीं है। भारतीय अधिकारी विभिन्न राज्यों में नियुक्त होते हैं। वे संबंधित राज्य की भाषा सीखते हैं। दक्षिण भारत के अधिकारी उत्तर भारतीय नियुक्ति के दौरान खूबसूरत हिंदी बोलते, लिखते हैं। उत्तर भारतीय अधिकारी दक्षिणी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा में संवाद करते हैं। पीडि़त व्यक्ति भी क्षेत्रीय भाषा में ही व्यथा सुनाते हैं। उच्च अधिकारी भी अपने अधीनस्थों को प्राय: भारतीय भाषाओं में ही निर्देश देते हैं। अंग्रेजी की जरूरत मंत्रियों, सांसदों या विधायकों से वार्ता के दौरान भी नहीं पड़ती। मूलभूत प्रश्न यह है कि आखिरकार प्रशासनिक क्षमता और अभिरुचि का अंग्रेजी से क्या संबंध है? अंग्रेजी ज्ञान का प्रशासनिक कामकाज से रिश्ता क्या है? केंद्र ने जनोन्मुखी नहीं, बाजारोन्मुखी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हितैषी नया प्रशासक वर्ग बनाने के लिए ही यह नया प्रस्ताव करवाया है। पूरा प्रस्ताव संविधान की मूल भावना का ही विरोधी है। संविधान में संघ को निर्देश है कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए। लेकिन यहां राष्ट्रभाषा हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के प्रभुत्व की स्थापना है। नए प्रस्ताव का सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा (मेन्स) से कोई लेना-देना नहीं है। मुख्य परीक्षा में 200 अंकों का निबंध है। 1200 अंकों वाले दो विषय हैं, सामान्य ज्ञान के 600 अंक हैं। अंग्रेजी व भारतीय भाषाओं के हरेक पर्चे के लिए 300 अंक हैं, लेकिन भाषा वाले अंकों से मेरिट नहीं बनती। इसी मुख्य परीक्षा के लिए योग्य अभ्यर्थी चयन करना ही प्रीलिम का लक्ष्य है। लेकिन यहां प्रीलिम का कोई मतलब नहीं है। आखिरकार श्रेष्ठ प्रशासक की योग्यता क्या है? संवेदनशीलता और संविधान के प्रति सर्वोपरि निष्ठा उसका सर्वोत्कृष्ट गुण होना चाहिए। संविधान की उद्देश्यिका और राज्य के नीति निर्देशक तत्व प्रशासक के आधारभूत पथ निर्देशक हैं। उद्देश्यिका या नीति निर्देशक तत्वों का संचार ज्ञान, समीक्षा साम‌र्थ्य या आंकड़ा विश्लेषण का कोई संबंध नहीं है, तर्कशक्ति का संबंध दर्शन से है। संवैधानिक निष्ठा व तर्क क्षमता परस्पर विरोधी तत्व हैं। केंद्र भारतीय प्रशासन को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सेवक बनाने पर आमादा है। कोई 3-4 वर्ष पहले कार्मिक मंत्रालय से संबद्ध संसद की एक स्थायी समिति ने भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था व विश्व व्यापार संगठन की चुनौतियों के बरक्स व्यावसायिक बुद्धि वाले अधिकारियों की जरूरत बताई थी। कांग्रेसी सरकार की काया में मैकाले के प्रेत की छाया है और अमेरिकी व्यापारिक हितों की माया है। उत्कृष्ट प्रशासक भारत की आवश्यकता हैं। आईएएस/आईपीएस/आईएफएस होना ज्यादातर मेधावी छात्रों का सपना होता है। ग्रामीण क्षेत्रों की भी तमाम प्रतिभाएं सिविल परीक्षा में बाजी मारती थीं। प्रत्येक छात्र अंग्रेजी नहीं पढ़ता। नए प्रस्ताव ने ग्रामीण छात्रों व गैर अंग्रेजी युवकों के लिए इस परीक्षा के द्वार बंद कर दिए हैं। प्रस्तावित प्रश्नपत्र के विषय विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ाए जाते। विश्लेषण क्षमता, संचार कौशल, आंकड़ों की बाजीगरी आदि विषय भारतीय विश्वविद्यालयों के कोर्स में नहीं हैं। तर्कशास्त्र दर्शन शास्त्र का हिस्सा है, लेकिन दर्शन के विद्यार्थी अन्य विषय नहीं जानते। सिविल परीक्षाओं के लिए देश में हजारों कोचिंग संस्थाएं हैं। इनकी फीस बहुत महंगी है। निर्धन छात्र कोचिंग का खर्च नहीं उठा सकते। अभ्यर्थियों को कोचिंग से दूर रखने के कोर्स की चर्चा थी, लेकिन नए मसौदे में कोचिंग व्यवस्था ही अनिवार्य हो गई है। नए कोर्स का अध्ययन अन्य किसी भी स्त्रोत से संभव नहीं दिखाई पड़ता। कोचिंग संस्थाएं इस विकल्पहीनता का लाभ उठाएंगी, फीस और भी महंगी होगी। साधारण परिवार के युवकों-बच्चों का ऐसी परीक्षा में शामिल होना असंभव होगा। कल्याणकारी राष्ट्र-राज्य में बाजार विशेषज्ञ प्रबंधक नहीं लोकमंगल साधक-प्रशासक की जरूरत होती है। प्रशासन का मुख्य लक्ष्य लोकहित होता है। अधिकारियों को भारत के दर्शन, सामाजिक गठन, नैतिक और पंथिक मूल्यों की जानकारी होनी ही चाहिए। लेकिन पं. नेहरू की कांग्रेस ने अंगे्रजी सत्ता के ध्वंसाशेषों पर भारतीय प्रशासन का ढांचा खड़ा किया। मोरिस जोन्स ने ठीक लिखा, ब्रिटिश शासक 1947 में चले गए लेकिन प्रशासन का तंत्र, आकार, कार्य का ढंग, पारस्परिक संबंध सबके सब जस के तस रहे। भारतीय प्रशासक भिन्न नस्ल की प्रजाति हैं। एसएन वोहरा समिति ने यहां नौकरशाह, माफिया और राजनेता का त्रिगुट बताया था। टीएन शेषन ने नौकरशाही को रीढ़विहीन प्राणी और कार्लगर्ल कहा था। प्रशासनिक सुधार पर अनेक आयोग बने, अनेक सिफारिशें हुईं, लेकिन प्रशासन को संविधाननिष्ठ और संवेदनशील बनाने की सारी कसरतें बेकार हुईं। संप्रति उन्हें प्रशासक से प्रबंधक बनाने की तैयारी है। नया कोर्स बाजारवाद को शक्तिशाली बनाने का मनमोहन फार्मूला है। सामान्य जन और ग्रामीण अब अधिकारी नहीं बन सकते। भविष्य के प्रशासक परिशुद्ध प्रबंधक होंगे, अंग्रेजी घरों से आएंगे, अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में बोलेंगे, अंग्रेजी में काम करेंगे। बेशक वे शतप्रतिशत इंडियन होंगे, लेकिन गरीब, शोषित, पीडि़त, भुखमरी और बेरोजगारी से ग्रस्त विकासशील इस भारत के लिए उनके संवेदनहीन तार्किक चित्त में कोई जगह नहीं होगी। संघ लोकसेवा आयोग पुनर्विचार करे। संसद संवाद करे। कृपया भारत को भारतीय प्रशासक ही दीजिए। (लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हैं)

लेख दैनिक जागरण के सम्पदीय से लिया गया है 

Saturday, October 9, 2010

हिंदी को बिगाड़ रहे हैं हिंदी अखबार

मुंबई विवि के हिंदी विभाग की तरफ से आयोजित परिचर्चा : नवभारत टाइम्स के
एनबीटी बनने पर चिंता : मुंबई : युवा पीढी के नाम पर कुछ अखबार हिंदी को
हिंगलिश बनाने पर तुले हुए हैं. मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की
तरफ से आयोजित परिचर्चा में बुद्धिजीवियों की यह चिंता उभर कर सामने आई.
नवभारत टाइम्स (मुंबई) के पूर्व संपादक विश्वनाथ सचदेव ने कहा कि जब घर
का गुसलखाना - बाथरुम, रसोई घर- किचन बन जाए और हिंदी के अखबार संसद को
पार्लियामेंट, प्रधानमंत्री को पीएम लिखने लगे, नवभारत टाइम्स एनबीटी बन
जाए तो हिंदी के लिए खतरे की घंटी जरूर सुनाई देती है. उन्होंने कहा कि
हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाने से पहले जरूरी यह है
कि सही मायने में हिंदी को पहले इस देश की राष्ट्रभाषा बनाया जाए.
मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की तरफ से आयोजित परिचर्चा 'हिन्दी
का वर्तमान स्वरूप : दिशा और दशा' में बोलते हुए सचदेव ने कहा कि इधर
हिंदी की अलग-अलग बोलियों को लेकर लोगों का आग्रह बढ़ा है. पर अच्छा यह
होगा कि हम हिंदी की बात करें, क्योंकि इसका विशाल दायरा है. सचदेव ने
हिंदी अखबारों में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते इस्तेमाल पर ऐतराज जताया.
परिचर्चा के उद्घाटनकर्ता महाराज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्यकारी
अध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने कहा कि हिंदी की ताकत को अमेरिका ने भी
पहचान लिया है. इसलिए वहां दर्जनों विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा
रही है. उन्होंने कहा कि एक शोध से पता चला है कि हिंदी दुनिया में सबसे
ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. जबकि अब तक इसे दूसरे नंबर पर माना जाता
है. वरिष्ठ लेखक डॉ. नंदलाल पाठक ने कहा कि हिंदी को लेकर परेशान होने की
जरूरत नहीं है. हिंदी खुद ब खुद फल-फूल रही है.
परिचर्चा में भाग लेते हुए 'हमारा महानगर' के स्थानीय संपादक राघवेंद्र
द्विवेदी ने कहा कि हिन्दी को लेकर चिंता करने की जरूरत नहीं है. हिन्दी
का भविष्य उज्ज्वल है और यह तेजी से आगे बढ़ रही है. उन्होंने कहा कि अब
दक्षिण के लोगों को भी हिंदी से परहेज नहीं रहा. सब लोग हिंदी को अपना
रहे हैं. हिंदी के लिए अंग्रेजी के विरोध की जरूरत नहीं है. 'नवभारत' के
वरिष्ठ संवाददाता विजय सिंह 'कौशिक' ने कहा कि विभिन्न भाषा व
संस्कृतियों वाले देश में राष्ट्र को एक सम्पर्क भाषा की जरूरत है और
हिंदी में ही वह सम्पर्क भाषा बनने का दमखम है. उन्होंने कहा कि हिन्दी
को लेकर सरकार के पास कोई नीति नहीं है. सरकार को इसे रोजगार की भाषा
बनाने के लिए उचित कदम उठाना चाहिए. हिंदी को शुद्धतावादियों से बचाने की
जरूरत पर बल देते हुए सिंह ने कहा कि इसका मतलब यह भी नहीं है कि हिंदी
में अंग्रेजी के शब्द जबरन ठूंसे जाएं.
हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ने कहा कि हिंदी भी
रोजगार देने वाली भाषा है और हिंदी दुनियाभर में अपनी पहचान बना रही है.
उन्होंने कहा कि अंग्रेजी, स्पेनिश, चीनी, अरबी, फ्रेंज व रूसी संयुक्त
राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा है. इनमें अरबी व स्पेनिश भाषा बोलने वालों
की संख्या काफी कम है जबकि दुनियाभर में 1 अरब 11 लोगों की भाषा है
हिंदी. इस हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा होने का पूरा
अधिकार है.
मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय, विलेपार्ले के प्राध्यापक रविद्र
कात्यायन ने कहा कि मैं यह बात नहीं मानता कि हिंदी रोजगार नहीं दिला
सकती. यदि आपको सौ प्रतिशत हिंदी और ५० प्रतिशत अंग्रेजी का ज्ञान हो तो
काम की कोई कमी नहीं है. वरिष्ठ साहित्यकार सुधा अरोड़ा ने हिंदी अखबारों
में अग्रेजी के अत्यधिक प्रयोग पर दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि जब
प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को केवल अंग्रेजी अक्षर का ज्ञान दिया जाएगा
तो वे बाद में हिंदी को कैसे अपना सकेंगे. लातूर के डॉ. मानधने ने कहा कि
बाजार हिंदी से चलती है पर बाजार के लोग अंग्रेजी बोलने में ही अपनी शान
समझते है. इस मौके पर मुंबई विवि के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ. विष्णु
सरवदे, मुंबई विवि के उपकुलसचिव आशुतोष राठोड़, नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ
कॉपी संपादक दुर्गेश सिंह, हमारा महानगर के कार्यालय संवाददाता रामदिनेश
यादव आदि मौजूद थे.


मुंबई से विजय सिंह 'कौशिक' की रिपोर्ट
भड़ास4मीडिया - आयोजन    

Friday, October 8, 2010

मॉस्को स्थित भारतीय दूतावास में हिन्दी दिवस

विश्व में 75 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस आंकड़े में वे लोग भी शामिल हैं, हिंदी जिनकी मातृभाषा नहीं है। रूस में भी कई लोग हिंदी  सीखते हैं और हिंदी बोलते भी  हैं। इसलिए, हैरानी की कोई बात नहीं है कि प्रतिवर्ष मास्को में मनाए जाते हिंदी दिवस में बहुत से रूसी लोग भी भाग लेते हैं। इस बार  भारतीय दूतावास में हिंदी के कई अध्यापक, कई अनुवादक,  विशेषज्ञ और छात्र-छात्राएँ इकट्ठा हुए।रेडियो रूस के कई कर्मी भी वहाँ पहुँचे हुए थे जिनमें हमारी संवाददाता तात्याना कोपिलोवा  शामिल थीं। भारतीय राजदूत श्री प्रभात शुक्ला जी ने एकत्र हुए युवाओं और युवतियों तथा रेडियो रूस के कर्मियों और श्रोताओं को अपनी शुभकामनाएँ दीं।
 रूसी लोग हमेशा ही भारत में, उसकी संस्कृति में गहरी दिलचस्पी लेते रहे हैं। रूस के कई उच्च शिक्षा संस्थानों, जैसे मास्को राजकीय विश्वविद्यालय, मास्को अंतराष्ट्रीय संबंध संस्थान, व्यावहारिक प्राच्य विद्या संस्थान और राजकीय आर्ट्स युनिवर्सिटी के अलावा जवाहर लाल नेहरू सांस्कृतिक केंद्र में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।
मास्को में कुछ ऐसे विशेष स्कूल भी हैं जहाँ बच्चों को 9-10 साल की उम्र से ही हिंदी पढ़ाई जाती है। किसी विदेशी के लिए हिंदी भाषा को सीखना कोई आसान काम नहीं है। कोई भी विदेशी भाषा सीखने के लिए केवल इच्छा और क्षमता की ही नहीं बल्कि बड़े धैर्य और दृढ़ता की अति आवश्यकता होती है। हाँ, तो इसके लिए अच्छी पाठ्यपुस्तकों और प्रतिभावान शिक्षकों की भी ज़रूरत होती है। मास्को विश्वविद्यालय के अंतर्गत एशिया-अफ्रीका संस्थान की अध्यापिका प्रो. ल्युदमिला ख़ख्लोवा ने अपनी पढाई के वर्षों को याद किया और उस समय की आज के समय से तुलना की।
भारतीय दूतावस में मनाए गए हिंदी दिवस के  दौरान रूसी युवकों और युवतियों को हिंदी बोलते सुनकर हमें बेहद खुशी हुई। क्सेनिया नाम की एक छात्रा ने तो सभी को चकित कर दिया। उसने हिंदी में लिखी अपनी कविता सुनाकर लोगों को मंत्र-मुग्ध कर दिया।हिंदी दिवस समारोह के दौरान कई रूसी कवियों और लेखकों की रचनाओं के हिंदी अनुवाद  भी सुनने को मिले। महान रूसी कवि अलेक्सांदर पुश्किन को भला कौन नहीं जनता है? ! उनकी कविता  - मुझे याद है वो अद्भुत क्षण!  का अति सुन्दर अनुवाद किया है, हिंदी भाषा के विद्वान, प्रो. मदनलाल मधु जी ने। मधु जी भी वहाँ उपस्थित थे! लेकिन इस कविता को एक रूसी युवती आन्ना ज़खारोवा ने अपनी  मनमोहक आवाज़ में सुनाया।

सौजन्य - 
http://hindi.ruvr.ru/2010/10/07/24642388.html
वीडियो : http://hindi.ruvr.ru/data/2010/10/07/1223557510/indidivas.mp3

Wednesday, October 6, 2010

ऑस्ट्रेलिया में हिंदी गौरव के पहले मुद्रित संस्करण का लोकार्पण

2 अक्टूबर को गाँधी जयंती एवं लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिवस के शुभ
अवसर पर सिडनी में हिंदी के क्षेत्र में एक नया स्वर्णिम अध्याय जुड़
गया| हिंदी गौरव ऑनलाइन समाचार-पत्र की सफलता के पश्चात सिडनी गुजरात
भवन, सिडनी में करीब 250 लोगों की उपस्थिति में हिंदी गौरव के प्रथम
प्रिंट संस्करण का विमोचन भारत के कौंसुल जनरल सिडनी माननीय अमित दास
गुप्ता के कर कमलों से हुआ| इस अवसर पर विशिष्ट अतिथियों में पेरामेटा से
सांसद माननीया तान्या गेडियल डिप्टी स्पीकर एन एस डब्लू संसद, माननीय
सांसद फिलिप रुड़क(पूर्व मंत्री), माननीय सांसद लौरी फर्गुसन आदि थे|

कार्यक्रम का शुभारम्भ सिडनी की प्रतिष्ठित रंगमच अभिनेत्री ऐश्वर्या
निधि ने सभी उपस्थित गणमान्य अतिथियों का स्वागत करते हुए किया| 2
अक्टूबर को गाँधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिवस पर दोनों को
याद करते हुए उनके जीवन एवं उनके द्वारा किये गए योगदान पर प्रकाश डाला|
ऐश्वर्या निधि इस कार्यक्रम की संचालिका थी जिन्होंने इस कार्यक्रम को
सफलतापूर्वक संपन्न कराया|

सबसे पहले हिंदी गौरव की सरंक्षक डॉ शैलजा चतुर्वेदी ने बोलते हुए हिंदी
गौरव की ओर से सभी उपस्थितजनों को स्वागत किया एवं इस शुभ अवसर पर सभी के
द्वारा अपना अमूल्य सहयोग देने के लिए सभी का कोटि-कोटि धन्यवाद दिया|
आपने सिडनी में किये जा रहे विभिन्न संस्थाओं एवं व्यक्तियों का उल्लेख
करते हुए सिडनी में हिंदी की यात्रा पर प्रकाश डाला| आपने हिंदी समाज के
द्वारा हिंदी के क्षेत्र में किये गए कार्यों का उल्लेख किया| डॉ शैलजा
चतुर्वेदी जी ने हिंदी गौरव ऑनलाइन समाचार-पत्र की सफलता का उल्लेख करते
हुए इसको प्रिंट मीडिया में लाने के लिए सभी के सहयोग के लिए आभार व्यक्त
किया| आपने हिंदी गौरव को हर आदमी तक पहुँचने के लक्ष्य को बताते हुए
सिडनी में भारतीय समुदाय में हिंदी के महत्व को भी उजागार किया| आपने कुछ
बेहद उम्दा कवितायें लोगों को सुनाई|

विशिष्ट अतिथि तान्या गेडियल ने वक्ता के रूप में महात्मा गाँधी जी के
द्वारा किये गए कार्यों की सराहना की एवं उनके अहिंसा के सिद्धांत के आज
के परिवेश में उल्लेख किया| आपने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री जी का भी उल्लेख किया| आपने हिंदी गौरव की बढ़ती लोकप्रियता को
सराहा, एवं हिंदी गौरव की टीम को विमोचन के अवसर पर हार्दिक बधाई दी|

सांसद फिलिप रुड़क(पूर्व मंत्री) एवं सांसद लौरी फर्गुसन ने इस कार्यक्रम
में दो अक्तूबर के महत्व पर प्रकाश डालते हुए गाँधी एवं लाल बहादुर
शास्त्री के जीवन का उल्लेख किया| हिंदी गौरव के शुभारम्भ पर बधाई दी|

मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए भारत के कौंसुल जनरल सिडनी माननीय अमित
दास गुप्ता ने अपने संबोधन में कहा कि बापू सारी दुनिया में शांति चाहते
थे। उन्होंने महात्माजी के संदेशों को विस्तार से समझाया और कहा कि उनकी
मृत्यु के इतने लंबे समय बाद भी उनके विचार सारी दुनिया के लिए प्रासंगिक
हैं। आपने लाल बहादुर शास्त्री के जीवन पर भी प्रकाश डाला| आपने हिंदी
गौरव की टीम को हिंदी को ऑस्ट्रेलिया में लोकप्रिय बनाने के लिए प्रेरित
किया एवं समाज में समाचार पत्र के महत्व को बताया की समाचार-पत्र समाज का
आईना होता है| आपने हिंदी गौरव की टीम को सहयोग देने का आश्वासन दिया|

माननीय अमित दास गुप्ता ने अपने संबोधन के बाद हिंदी गौरव के प्रथम
प्रिंट संस्करण का विमोचन किया जिसमें सांसद माननीया तान्या गेडियल
डिप्टी स्पीकर एन एस डब्लू संसद, माननीय सांसद फिलिप रुड़क(पूर्व
मंत्री), माननीय सांसद लौरी फर्गुसन एवं डॉ शैलजा चतुर्वेदी ने सहयोग
किया|

हिंदी गौरव के विमोचन के बाद कई रंगारंग कार्यक्रम अभिनय स्कूल ऑफ़
फरफोर्मिंग आर्ट्स के सौजन्य से प्रस्तुत किये गए| इन रंगारंग
कार्यक्रमों में मनमोहक नृत्य, भांगड़ा एवं देशभक्ति एवं उम्दा गायन
सम्मिलित थे| इस अवसर पर दो बच्चियों तान्या एवं पेरिस द्वारा जय हो पर
किया गया नृत्य ने सभी का मन मोह लिया, इसके बाद निष्ठा कुलश्रेष्ठ ने एक
मिश्रित गाने पर नृत्य किया| जैसा की अधिकतर भांगड़ा के बिना कार्यक्रम
अधूरा होता हैं इसमें भी एक बेहद आर्कषक भांगड़ा जसदेव भाटिया द्वारा
प्रस्तुत किया| लता, राजेंद्र बालस्कर एवं भैरव वर्मा द्वारा मनमोहक गायन
प्रस्तुत किये गए| नेहा दबे ने बहुत खूबसूरत नृत्य पेश किया आप सिडनी की
एक होनहार डांसर है|

सिडनी में हिंदी के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले कवि एवं लेखक
अब्बास रज़ा अल्वी ने हिंदी गौरव के ओर से सभी अतिथियों एवं गणमान्य
व्यक्तियों का आभार व्यक्त किया|

कार्यक्रम के समापन पर हिंदी गौरव के मुख्य संपादक अनुज कुलश्रेष्ठ ने
हिंदी गौरव को सफल बनाने के लिए सभी का धन्यबाद दिया ओर इस अवसर पर हिंदी
गौरव से जुड़े हुए सभी सदस्यों का उपस्थितजनों से परिचय कराया| हिंदी
गौरव के तकनीकी प्रमुख हेमेन्द्र नेगी हैं| यह कार्यक्रम सिडनी गुजरात
भवन में प्रथम कार्यक्रम था, इस भवन का शुभारम्भ भी हिंदी गौरव के विमोचन
के साथ हुआ| यह भवन ऑस्ट्रेलिया में भारतीय समुदाय का पहला भवन हैं|



लेख साभार 
विजय कुमार मल्होत्रा
पूर्व निदेशक (राजभाषा),
रेल मंत्रालय,भारत सरकार



लेख का लिंक http://hindi-khabar.hindyugm.com/2010/10/hindi-gaurav-is-in-print-now.html