Friday, October 22, 2010

अनुवादक का द्वि-सांस्कृतिक होना बेहद ज़रूरी :योगेश भटनागर

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में अनुवाद का महत्व पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. साहित्य के अनुवाद के माध्यम से हम केवल किसी अन्य भाषा के लेखन से ही परिचित नहीं होते बल्कि उस भाषा समाज की सामजिक-सांस्कृतिक परंपराओं  और विशेषताओं से भी परिचित होते हैं. अनुवादक एक भाषा में रचित साहित्य के अर्थ और रूप  भर को नहीं बल्कि उसके मूल्यों और सरोकारों को भी दूसरी भाषा में प्रकट करने का दायित्व निभाता है. ऐसा करने के लिए उसका द्विभाषिक के साथ साथ द्विसांस्कृतिक होना भी अपरिहार्य शर्त है. इस स्तर पर साहित्य का अनुवादक मात्र अनुसरणकर्ता  नहीं होता बल्कि मौलिक लेखक की भाँति ही सृजनकर्ता होता है."

ये विचार अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय  के रूसी अध्ययन संकाय के तत्वावधान में संपन्न 'चेखव का अनुवादविषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर पर बोलते हुए प्रमुख चेखवविद लेखक और अनुवादक प्रो.योगेश चन्द्र भटनागर ने व्यक्त किये.

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने बताया कि  इस संगोष्ठी-कार्यशाला में स्वीकृत किए  गए विभिन्न भाषाओं के अनुवादों को शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा. उन्होंने इसे समारोह की उपलब्धि और सफलता माना कि इसमें जहाँ एक ओर २० वरिष्ठ अनुवादक सम्मिलित हुए वहीं  इसके माध्यम से नए चेहरे के रूप में ११ युवा अनुवादक भी सामने आए जो हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रूसी भाषा से सीधे अनुवाद की संभावनाओं के विस्तार का सूचक है.

उल्लेखनीय है कि दो दिन के इस समारोह में ६ अलग-अलग समूहों में ३२ अनुवादकों द्वारा विभिन्न भारतीय भाषाओं में किये गएचेखव के १२ छोटे-बड़े नाटकों के अनुवादों का विश्लेषण करके उन्हें अंतिम रूप दिया गया. इस कार्य में द्विभाषिक विद्वानों के साथ साथ लक्ष्य भाषाओं हिंदी, मलयालम, तेलुगु, मराठी, ओडिया और बांग्ला  के मातृभाषा-भाषी विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया.


चेखव के भारतीय विशेषज्ञ प्रो.शंकर बसु, प्रो.योगेश भटनागर, प्रो.वरयाम सिंह और प्रो.पंकज मालवीय की उपस्थिति सभी प्रतिभागियों के लिए अत्यंत प्रेरणा-दायक रही.

कार्यशाला का निर्देशन प्रो.चारुमति रामदास तथा संयोजन डॉ.सत्यभान सिंह राजपूत ने किया. धन्यवाद ज्ञापन प्रो.मोनिका ने किया.

प्रस्तुतकर्ता ऋषभ 

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