Friday, October 22, 2010

अंग्रेजी थोपने की तैयारी

प्रशासनिक सेवा की नई परीक्षा प्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
प्रबंधन प्रशासन का विकल्प नहीं होता। कलमाड़ी और शीला जैसे मनमोहन प्रबंधकों ने ही राष्ट्रमंडल खेल आयोजनों में भारत की छवि को तार-तार किया है। प्रशासन की कामयाबी का मूलाधार संवेदनशील जनोन्मुखता है, प्रबंधन की सफलता का आधार बनावटी आचार और जुगाड़-व्यवहार है। बावजूद इसके केंद्रीय कार्मिक विभाग सिविल सेवाओं आईएएस, आईएफएस व आईपीएस आदि की प्रवेश परीक्षा प्रथम (प्रीलिम) के लिए प्रबंधक गुरु बनाने का नया प्रस्ताव लाया है। दावा है कि इससे अभ्यर्थियों की प्रशासनिक अभिरुचि क्षमता का मूल्यांकन होगा। 200 अंकों वाले प्रथम प्रश्नपत्र में ताजा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय घटनाएं, भारतीय इतिहास, राजनीति और शासन, आर्थिक सामाजिक विकास, सामान्य विज्ञान के साथ जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन आदि विषय हैं। 200 अंकों के ही दूसरे पर्चे में एमबीए की तर्ज पर अंग्रेजी भाषा का ज्ञान, गणित, तर्कशक्ति परीक्षण, आंकड़ों का विवेचन संवाद, संचार क्षमता आदि विषय शामिल हैं। अब तक सामान्य ज्ञान के 150 अंकों व 150 प्रश्नों वाले पहले पर्चे में प्रति प्रश्न एक अंक मिलता था, लेकिन 300 अंकों वाले दूसरे पर्चे में अभ्यर्थी स्वयं चयनित विषय में अपनी सर्वोत्तम क्षमता प्रकट करता था। अब इसकी जगह अंग्रेजीज्ञान व प्रबंधन के विषय हैं। सो ढेर सारी आलोचनाएं शुरू हो चुकी हैं। दुनिया के किसी भी देश की प्रशासक चयन परीक्षा में विदेशी भाषा ज्ञान की अनिवार्यता नहीं है। भारतीय अधिकारी विभिन्न राज्यों में नियुक्त होते हैं। वे संबंधित राज्य की भाषा सीखते हैं। दक्षिण भारत के अधिकारी उत्तर भारतीय नियुक्ति के दौरान खूबसूरत हिंदी बोलते, लिखते हैं। उत्तर भारतीय अधिकारी दक्षिणी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा में संवाद करते हैं। पीडि़त व्यक्ति भी क्षेत्रीय भाषा में ही व्यथा सुनाते हैं। उच्च अधिकारी भी अपने अधीनस्थों को प्राय: भारतीय भाषाओं में ही निर्देश देते हैं। अंग्रेजी की जरूरत मंत्रियों, सांसदों या विधायकों से वार्ता के दौरान भी नहीं पड़ती। मूलभूत प्रश्न यह है कि आखिरकार प्रशासनिक क्षमता और अभिरुचि का अंग्रेजी से क्या संबंध है? अंग्रेजी ज्ञान का प्रशासनिक कामकाज से रिश्ता क्या है? केंद्र ने जनोन्मुखी नहीं, बाजारोन्मुखी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हितैषी नया प्रशासक वर्ग बनाने के लिए ही यह नया प्रस्ताव करवाया है। पूरा प्रस्ताव संविधान की मूल भावना का ही विरोधी है। संविधान में संघ को निर्देश है कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए। लेकिन यहां राष्ट्रभाषा हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के प्रभुत्व की स्थापना है। नए प्रस्ताव का सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा (मेन्स) से कोई लेना-देना नहीं है। मुख्य परीक्षा में 200 अंकों का निबंध है। 1200 अंकों वाले दो विषय हैं, सामान्य ज्ञान के 600 अंक हैं। अंग्रेजी व भारतीय भाषाओं के हरेक पर्चे के लिए 300 अंक हैं, लेकिन भाषा वाले अंकों से मेरिट नहीं बनती। इसी मुख्य परीक्षा के लिए योग्य अभ्यर्थी चयन करना ही प्रीलिम का लक्ष्य है। लेकिन यहां प्रीलिम का कोई मतलब नहीं है। आखिरकार श्रेष्ठ प्रशासक की योग्यता क्या है? संवेदनशीलता और संविधान के प्रति सर्वोपरि निष्ठा उसका सर्वोत्कृष्ट गुण होना चाहिए। संविधान की उद्देश्यिका और राज्य के नीति निर्देशक तत्व प्रशासक के आधारभूत पथ निर्देशक हैं। उद्देश्यिका या नीति निर्देशक तत्वों का संचार ज्ञान, समीक्षा साम‌र्थ्य या आंकड़ा विश्लेषण का कोई संबंध नहीं है, तर्कशक्ति का संबंध दर्शन से है। संवैधानिक निष्ठा व तर्क क्षमता परस्पर विरोधी तत्व हैं। केंद्र भारतीय प्रशासन को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सेवक बनाने पर आमादा है। कोई 3-4 वर्ष पहले कार्मिक मंत्रालय से संबद्ध संसद की एक स्थायी समिति ने भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था व विश्व व्यापार संगठन की चुनौतियों के बरक्स व्यावसायिक बुद्धि वाले अधिकारियों की जरूरत बताई थी। कांग्रेसी सरकार की काया में मैकाले के प्रेत की छाया है और अमेरिकी व्यापारिक हितों की माया है। उत्कृष्ट प्रशासक भारत की आवश्यकता हैं। आईएएस/आईपीएस/आईएफएस होना ज्यादातर मेधावी छात्रों का सपना होता है। ग्रामीण क्षेत्रों की भी तमाम प्रतिभाएं सिविल परीक्षा में बाजी मारती थीं। प्रत्येक छात्र अंग्रेजी नहीं पढ़ता। नए प्रस्ताव ने ग्रामीण छात्रों व गैर अंग्रेजी युवकों के लिए इस परीक्षा के द्वार बंद कर दिए हैं। प्रस्तावित प्रश्नपत्र के विषय विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ाए जाते। विश्लेषण क्षमता, संचार कौशल, आंकड़ों की बाजीगरी आदि विषय भारतीय विश्वविद्यालयों के कोर्स में नहीं हैं। तर्कशास्त्र दर्शन शास्त्र का हिस्सा है, लेकिन दर्शन के विद्यार्थी अन्य विषय नहीं जानते। सिविल परीक्षाओं के लिए देश में हजारों कोचिंग संस्थाएं हैं। इनकी फीस बहुत महंगी है। निर्धन छात्र कोचिंग का खर्च नहीं उठा सकते। अभ्यर्थियों को कोचिंग से दूर रखने के कोर्स की चर्चा थी, लेकिन नए मसौदे में कोचिंग व्यवस्था ही अनिवार्य हो गई है। नए कोर्स का अध्ययन अन्य किसी भी स्त्रोत से संभव नहीं दिखाई पड़ता। कोचिंग संस्थाएं इस विकल्पहीनता का लाभ उठाएंगी, फीस और भी महंगी होगी। साधारण परिवार के युवकों-बच्चों का ऐसी परीक्षा में शामिल होना असंभव होगा। कल्याणकारी राष्ट्र-राज्य में बाजार विशेषज्ञ प्रबंधक नहीं लोकमंगल साधक-प्रशासक की जरूरत होती है। प्रशासन का मुख्य लक्ष्य लोकहित होता है। अधिकारियों को भारत के दर्शन, सामाजिक गठन, नैतिक और पंथिक मूल्यों की जानकारी होनी ही चाहिए। लेकिन पं. नेहरू की कांग्रेस ने अंगे्रजी सत्ता के ध्वंसाशेषों पर भारतीय प्रशासन का ढांचा खड़ा किया। मोरिस जोन्स ने ठीक लिखा, ब्रिटिश शासक 1947 में चले गए लेकिन प्रशासन का तंत्र, आकार, कार्य का ढंग, पारस्परिक संबंध सबके सब जस के तस रहे। भारतीय प्रशासक भिन्न नस्ल की प्रजाति हैं। एसएन वोहरा समिति ने यहां नौकरशाह, माफिया और राजनेता का त्रिगुट बताया था। टीएन शेषन ने नौकरशाही को रीढ़विहीन प्राणी और कार्लगर्ल कहा था। प्रशासनिक सुधार पर अनेक आयोग बने, अनेक सिफारिशें हुईं, लेकिन प्रशासन को संविधाननिष्ठ और संवेदनशील बनाने की सारी कसरतें बेकार हुईं। संप्रति उन्हें प्रशासक से प्रबंधक बनाने की तैयारी है। नया कोर्स बाजारवाद को शक्तिशाली बनाने का मनमोहन फार्मूला है। सामान्य जन और ग्रामीण अब अधिकारी नहीं बन सकते। भविष्य के प्रशासक परिशुद्ध प्रबंधक होंगे, अंग्रेजी घरों से आएंगे, अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में बोलेंगे, अंग्रेजी में काम करेंगे। बेशक वे शतप्रतिशत इंडियन होंगे, लेकिन गरीब, शोषित, पीडि़त, भुखमरी और बेरोजगारी से ग्रस्त विकासशील इस भारत के लिए उनके संवेदनहीन तार्किक चित्त में कोई जगह नहीं होगी। संघ लोकसेवा आयोग पुनर्विचार करे। संसद संवाद करे। कृपया भारत को भारतीय प्रशासक ही दीजिए। (लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हैं)

लेख दैनिक जागरण के सम्पदीय से लिया गया है 

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