Wednesday, September 29, 2010

हिंदी रुकने वाली नहीं है : अरविंद कुमार

हिंदी की अपरिहार्य और अनवरोध्य प्रगति के प्रति माधुरी तथा सर्वोत्तम
रीडर्स डाइजेस्ट जैसी पत्रिकाओं के पूर्व संपादक तथा हिंदी के पहले
शब्‍दकोश समांतर कोश के रचयिता और शब्देश्वरी तथा पेंगुइन
हिंदी-इंग्लिश/इंग्लिश-हिंदी थिसॉरस द्वारा भारत में कोशकारिता को नई
दिशा देने वाले अरविंद कुमार। वह हिंदी को आधुनिक तकनीक से लैस करने के
हिमायती हैँ और आजकल इंटरनेट पर पहले सुविशाल हिंदी-इंग्लिश-हिदी ई-कोश
को अंतिम रूप देने में लगे हैं-

हिंदी के उग्रवादी समर्थक बेचैन हैं कि आज भी इंग्लिश का प्रयोग सरकार
में और व्यवसाय मेँ लगभग सर्वव्यापी है। वे चाहते हैं कि इंग्लिश का
प्रयोग बंद करके हिंदी को सरकारी कामकाज की एकमात्र भाषा तत्काल बना दिया
जाए। उनकी उतावली समझ में आती है, लेकिन यहाँ यह याद दिलाने की ज़रूरत है
कि एक समय ऐसा भी था जब दक्षिण भारत के कुछ राज्य, विशेषकर तमिलनाडु,
हिंदी की ऐसी उग्र माँगोँ के जवाब में भारत से अलग होकर अपना स्वतंत्र
देश बनाने को तैयार थे। तब ‘हिंदी वीरों’ का कहना था कि चाहे तो तमिलनाडु
अलग हो जाए, हमें हिंदी चाहिए… हर हाल, अभी, तत्काल… उस समय शीघ्र होने
वाले संसद के चुनावोँ में उन्होँने नारा लगाया कि वोट केवल उस प्रत्याशी
को देँ जो हिंदी को तत्काल लागू करने के पक्ष मेँ हो। सौभाग्य है कि भारत
के लोग इतने नासमझ न थे और न आज हैं कि एकता भंग होने की शर्त पर हिंदी
को लागू करना चाहेँ।
मैँ समझता हूँ कि पूरी राजनीतिक और भाषाई तैयारी के बिना हिंदी को सरकारी
कामकाज की प्रथम भाषा बनाना लाभप्रद नहीं होगा। हिंदी पूरी तरह आने मेँ
देर लग सकती है, पर प्रजातंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए यह देरी
बर्दाश्त करने लायक़ है। तब तक हमें चाहिए कि सरकारी कामकाज में हिंदी
प्रचलन बढ़ाते रहें और साथ-साथ अपने आपको और हिंदी को आधुनिक तकनीक से
लैस करते रहेँ।
इंग्लिश के विरोध की नीति हमेँ अपने ही लोगोँ से भी दूर कर सकती है। आम
आदमी इंग्लिश सीखने पर आमादा है तो एक कारण यह है कि आज आर्थिक और
सामाजिक प्रगति के लिए इंग्लिश का ज्ञान आवश्यक है। दूसरा यह कि संसार का
सारा ज्ञान समेटने के लिए देश को इंग्लिश में समर्थ बने रहना होगा, वरना
हम कूपमंडूक रह जाएँगे। यही कारण था कि 19वीं सदी मेँ जब मैकाले की नीति
के आघार पर इंग्लिश शिक्षा का अभियान चला था, तब राजा राम मोहन राय जैसे
देशभक्त और समाज सुधारक ने उस का डट कर समर्थन किया था। वह देश को
दक़ियानूसी मानसिकता से उबारना चाहते थे। राममोहन राय ने कहा था, ‘एक दिन
इंग्लिश पूरी तरह भारतीय बन जाएगी और हमारे बौद्धिक सामाजिक विकास का
साधन।’ स्वामी विवेकानंद ने भी अमरीका में भारतीय संस्कृति का बिगुल
इंग्लिश के माध्यम से ही फूँका था।
इसके माने यह नहीँ हैँ कि आज हम लोग हिंदी का महत्त्व नहीँ जानते या
हिंदी की प्रगति और विकास रुक गया है या रुक जाएगा। मैं समझता हूँ कि
हिंदी के विकास का राकेट नई तेज़ी से उठता रहेगा। हिंदी अब रुकने वाली
नहीं है, हिंदी रुकेगी नहीं। कारण है हिंदी बोलने समझने वालोँ की भारी
तादाद और उनके भीतर की उत्कट आग।

भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों का तथ्याधारित अनुमान हिंदी
प्रेमियों के लिए उत्साहप्रद है कि आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय
महत्त्व की जो चंद भाषाएँ होंगी उनमें हिंदी अग्रणी होगी।
संसार में 60 करोड़ से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी,
मारीशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिंदी बोलती है।
अमरीकी, यूरोपीय महाद्वीप और ऑस्ट्रेलिया आदि देशोँ में गए हमारे तथाकथित
एनआरआई कमाएँ चाहे इंग्लिश के बल पर, लेकिन उनका भारतीय संस्कृति और
हिंदी के प्रति प्रेम बढ़ा ही है। कई बार तो लगता है कि वे हिंदी के सबसे
कट्टर समर्थक हैँ।
अकेले भारत को ही लें तो हिंदी की हालत निराशजनक नहीं, बल्कि अच्छी है।
आम आदमी के समर्थन के बल पर ही पूरे भारत में 10 शीर्ष दैनिकों में हिंदी
के पाँच हैँ (दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला,
राजस्थान पत्रिका),  तो इंग्लिश का कुल एक (टाइम्स ऑफ़ इंडिया) और मलयालम
के दो (मलयालम मनोरमा और मातृभूमि), मराठी का एक (लोकमत), तमिल का एक
(दैनिक थंती)। इसी प्रकार सबसे ज़्यादा बिकने वाली पत्रिकाओँ में हिंदी
की पाँच, तमिल की तीन, मलयालम की एक है, जबकि इंग्लिश की कुल एक पत्रिका
है। हिंदी के टीवी मनोरंजन चैनल न केवल भारत मेँ बल्कि बांग्लादेश,
पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में भी लोकप्रिय हैं और हिंदी के साथ-साथ
हमारे सामाजिक चिंतन का प्रसार कर रहे हैँ।
जहाँ तक हिंदी समाचार चैनलोँ का सवाल है इंग्लिश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित
न्यूज़ वीकली इकॉनॉमिस्ट ने 14 अगस्त 2010 अंक मेँ पृष्ठ 12 पर
‘इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग’ पर लिखते हुए कहा है कि अमरीका और ब्रिटेन के
विदेशी भाषाओँ में समाचार प्रसारित करने वाले संस्थानोँ को अपना धन सोच
समझ कर बर्बाद करना चाहिए। उदाहरण के लिए भारत की अपनी भाषाओँ के न्यूज़
चैनलोँ से प्रतियोगिता करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है।
हमारी ताक़त है हमारी तादाद…
यह परिणाम है हमारी जनशक्ति का। यही हिंदी का बल है। बहुत साल नहीं हुए
जब हम अपनी विशाल आबादी को अभिशाप मानते थे। आज यह हमारी कर्मशक्ति मानी
जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने सही कहा है: ‘अधिक आबादी
अपने आपमें कोई समस्या नहीं है, समस्या है उसकी ज़रूरियात को पूरा न कर
पाना। अधिक आबादी का मतलब है अधिक सामान की, उत्पाद की माँग। अगर लोगों
के पास क्रय क्षमता है तो हर चीज़ की माँग बढ़ती है।’ आज हमारे समृद्ध
मध्य वर्ग की संख्या अमरीका की कुल आबादी जितनी है। पिछले दिनोँ के
विश्वव्यापी आर्थिक संकट को भारत हँसते खेलते झेल गया तो उसका एक से बड़ा
कारण यही था कि हमारे उद्योगोँ के उत्पाद मात्र निर्यात पर आधारित नहीँ
हैँ। हमारी अपनी खपत उन्हें ताक़त देती है और बढ़ाती है।
इसे हिंदीभाषियोँ की और विकसित देशोँ की जनसंख्या के अनुपातोँ के साथ साथ
सामाजिक रुझानोँ को देखते हुए समझना होगा। दुनिया की कुल आबादी आज लगभग
चार अरब है। इसमेँ से हिंदुस्तान और चीन के पास 60 प्रतिशत लोग हैँ। कुल
यूरोप की आबादी है 73-74 करोड़, उत्तर अमरीका की आबादी है 50 करोड़ के
आसपास। सन् 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब से ऊपर हो जाने की संभावना है।
इसमेँ से यूरोप और अमरीका जैसे विकसित देशों की आबादी बूढ़ी होती जा रही
है। (आबादी बूढ़े होने का मतलब है किसी देश की कुल जनसंख्या मेँ बूढे
लोगोँ का अनुपात अधिक हो जाना।) चुनावी नारे के तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति
ओबामा कुछ भी कहें, बुढाती आबादी के कारण उन्हेँ अपने यहाँ या अपने लिए
काम करने वालोँ को विवश होकर, मजबूरन या तो बाहर वालोँ को आयात करना होगा
या अपना काम विदेशों में करवाना होगा।
इस संदर्भ मेँ संसार की सबसे बड़ी सॉफ़्टवेयर कंपनी इनफ़ोसिस के एक
संस्थापक नीलकनी की राय विचारणीय है। तथ्यों के आधार पर उनका कहना है कि
‘किसी देश में युवाओँ की संख्या जितनी ज़्यादा होती है, उस देश में उतने
ही अधिक काम करने वाले होते हैँ और उतने ही अधिक नए विचार पनपते हैं।
तथ्य यह है कि किसी ज़माने का बूढ़ा भारत आज संसार में सबसे अधिक युवा
जनसंख्या वाला देश बन गया है। इसका फ़ायदा हमें 2050 तक मिलता रहेगा।
स्वयं भारत के भीतर जनसंख्या आकलन के आधार पर 2025 मेँ हिंदी पट्टी की
उम्र औसतन 26 वर्ष होगी और दक्षिण की 34 साल।’
अब आप भाषा के संदर्भ में इसका मतलब लगाइए। इन जवानों में से अधिकांश
हिंदी पट्टी के छोटे शहरोँ और गाँवोँ में होंगे। उनकी मानसिकता मुंबई,
दिल्ली, गुड़गाँव के लोगोँ से कुछ भिन्न होगी। उनके पास अपनी स्थानीय
जीवन शैली और बोली होगी।
नई पहलों के चलते हमारे तीव्र विकास के जो रास्ते खुल रहे हैँ (जैसे सबके
लिए शिक्षा का अभियान), उनका परिणाम होगा असली भारत को, हमारे गाँवोँ को,
सशक्त करके देश को आगे बढ़ाना। आगे बढ़ने के लिए हिंदी वालोँ के लिए सबसे
बड़ी ज़रूरत है अपने को नई तकनीकी दुनिया के साँचे मेँ ढालना, सूचना
प्रौद्योगिकी में समर्थ बनना।
यही है हमारी नई दिशा। कंप्यूटर और इंटरनेट ने पिछ्ले वर्षों मेँ विश्व
मेँ सूचना क्रांति ला दी है। आज कोई भी भाषा कंप्यूटर तथा अन्य
इलैक्ट्रोनिक उपकरणों से दूर रह कर पनप नहीं सकती। नई तकनीक में महारत
किसी भी काल में देशोँ को सर्वोच्च शक्ति प्रदान करती है। इसमेँ हम पीछे
हैँ भी नहीँ… भारत और हिंदी वाले इस क्षेत्र मेँ अपना सिक्का जमा चुके
हैँ।
इस समय हिंदी में वैबसाइटेँ, चिट्ठे, ईमेल, चैट, खोज, ऐसऐमऐस तथा अन्य
हिंदी सामग्री उपलब्ध हैं। नित नए कंप्यूटिंग उपकरण आते जा रहे हैं। इनके
बारे में जानकारी दे कर लोगों मेँ  जागरूकता पैदा करने की ज़रूरत है ताकि
अधिकाधिक लोग कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग करते हुए अपना, देश का, हिंदी
का और समाज का विकास करें।
हमेँ यह सोच कर नहीँ चलना चाहिए कि गाँव का आदमी नई तकनीक अपनाना नहीं
चाहता। ताज़ा आँकड़ोँ से यह बात सिद्ध हो जाती है। गाँवोँ मेँ रोज़गार के
नए से नए अवसर खुल रहे हैँ। शहर अपना माल गाँवोँ में बेचने को उतावला है।
गाँव अब ई-विलेज हो चला है। तेरह प्रतिशत लोग इंटरनेट का उपयोग खेती की
नई जानकारी जानने के लिए करते हैँ। यह तथ्य है कि ‘गाँवोँ में इंटरनेट का
इस्तेमाल करने वालोँ का आंकड़ा 54 लाख पर पहुँच जाएगा।
इसी प्रकार मोबाइल फ़ोन दूरदराज़ इलाक़ोँ के लिए वरदान हो कर आया है।
उसने कामगारोँ, कारीगरोँ को दलालोँ से मुक्त कर दिया है। यह उनका चलता
फिरता दफ़्तर बन गया है और शिक्षा का माध्यम। अकेले जुलाई 2010 में 1
करोड़ सत्तर लाख नए मोबाइल ग्राहक बने और देश में मोबाइलोँ की कुल संख्या
चौबीस करोड़ हो गई। अब ऐसे फ़ोनोँ का इस्तेमाल कृषि कॉल सैंटरों से
नि:शुल्‍क  जानकारी पाने के लिए, उपज के नवीनतम भाव जानने के लिए किया
जाता है। यह जानकारी पाने वाले लोगोँ में हिंदी भाषी प्रमुख हैँ। उनकी
सहायता के लिए अब मोबाइलों पर इंग्लिश के कुंजी पटल की ही तरह हिंदी का
कुंजी पटल भी उपलब्ध हो गया है।
हिंदी वालोँ और गाँवोँ की बढ़ती क्रय शक्ति का ही फल है जो टीवी संचालक
कंपनियाँ इंग्लिश कार्यक्रमोँ पर अपनी नैया खेना चाहती थीँ, वे पूरी तरह
भारतीय भाषाओँ को समर्पित हैँ। आप देखेंगे कि टीवी पर हिंदी के मनोरंजन
कार्यक्रमोँ के पात्र अब ग्रामीण या क़स्बाती होते जा रहे हैँ।
सरकारी कामकाज की बात करेँ तो पुणे में प्रख्यात सरकारी संस्थान सी-डैक
कंप्यूटर पर हिंदी के उपयोग के लिए तरह तरह के उपकरण और प्रोग्राम विकसित
करने मेँ रत है। अनेक सरकारी विभागोँ की निजी तकनीकी शब्दावली को समोकर
उन मंत्रालयोँ के अधिकारियोँ की सहायता के लिए मशीनी अनुवाद के उपकरण
तैयार हो चुके हैँ। अभी हाल सी-डैक ने ‘श्रुतलेखन’ नाम की नई विधि विकसित
की है जिसके सहारे बोली गई हिंदी को लिपि में परिवर्तित करना संभव हो गया
है। जो सरकारी अधिकारी देवनागरी लिखने या टाइप करने में अक्षम हैं, अब वे
इसकी सहायता से अपनी टिप्पणियाँ या आदेश हिंदी में लिख सकेंगे। यही नहीं
इसकी सहायता से हिंदी में लिखित कंप्यूटर सामग्री तथा एसएमएस आदि को सुना
भी जा सकेगा।
निस्संदेह एक संपूर्ण क्रांति हो रही है।





लेखक मंच से साभार

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